________________ विपरिणमयितुं वा तदा श्रान्तस्तान्तः परितान्तः शनैः शनैः प्रत्यवष्वष्कते प्रत्यवष्वष्क्य पौषधशालातः प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य दिव्यं पिशाचरूपं विप्रजहाति विप्रजहायैकं महद् दिव्यं हस्तिरूपं विकुरुते। सप्ताङ्ग प्रतिष्ठितं सम्यक् संस्थितं सुजातं पुरत उदग्रं पृष्ठतो वराहम्, अजाकुक्षि, अवलम्बकुक्षि, प्रलम्बलम्बोदराधरकरम्, अभ्युद्गतमुकुलमल्लिका विमल-धवल-दन्तं, काञ्चनकोशी प्रविष्ट दन्तम्, आनामितचापललितसंवेल्लिताग्रशुण्डं, कूर्म प्रतिपूर्णचरणं, विंशतिनखम्, आलीनप्रमाणयुक्तपुच्छम्। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे पिसायरूवे—उस पिशाचरूप धारी देव ने, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, अभीयं जाव विहरमाणं भय रहित यावत् धर्म ध्यान में स्थित, पासइ देखा, पासित्ता—देखकर, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, निग्गंथाओ पावयणाओ-निर्ग्रन्थ प्रवचन से, चालित्तए वा–विचलित करने, खोभित्तए वा क्षुब्ध करने, विपरिणामित्तए का—उसके मनोभावों को पलटने में, जाहे नो संचाएइ-जब समर्थ न हो सका, ताहे तब, संते श्रान्त हो गया अर्थात् थक गया, तंते खेद अनुभव करने लगा, परितंते—ग्लानि अनुभव करने लगा, सणियं सणियं पच्चोसक्कइ-धीरे-धीरे पीछे को लौटा, पच्चोसक्कित्ता लौटकर, पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ—पौषधशाला से बाहर निकला, पडिणिक्खमित्ता—बाहर निकलकर, दिव्वं पिसायरूवं दिव्य पिशाच रूप, विप्पजहइ त्याग दिया, विप्पजहित्ता त्यागकर, एगं महं दिव्वं हत्थिरूवं–एक विकराल दिव्य हस्ती रूप की, विउव्वइ–विकुर्वणा की, सत्तंग पइट्ठियं सात अत्यन्त स्थूल अङ्गों से युक्त, सम्मं संठियं सम्यक् प्रकार से संस्थित, सुजायं-सुजात, पुरओ उदग्गं—आगे से ऊँचा, पिट्ठओ वराह-और पीछे से सुअर के आकार का रूप बनाया, अयाकुच्छिं अलंबकुच्छिं—उसकी कुक्ष बकरी की कुक्षि-पेट के समान लम्बी और नीचे लटकी हुई थी, पलंब लंबोदराधर करं पेट, अधर-होंठ और सूण्ड नीचे लटक रहे थे। अब्भुग्गयमउलमल्लियाविमलधवलदंतं—दाँत मुंह. से बाहर निकले हुए मुकुलित मल्लिका पुष्प की भाँति निर्मल और सफेद थे, कंचण कोसीपविठ्ठदंतं और दोनों दाँत ऐसे थे मानो सोने की म्यान में रखे हुए हों, आणामियचावललियसंवेल्लियग्गसोंडं—सूण्ड का अग्र भाग झुके हुए धनुष की भाँति मुड़ा हुआ था, कुम्मपडिपुण्ण चलणं-पैर कछुए के समान स्थूल और चपटे थे, वीसइनक्खं बीस नाखून थे, अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छं—पूंछ उठी हुई तथा प्रमाणोपेत थी। .. भावार्थ पिशाचरूपी देव ने तब भी श्रावक कामदेव को निडर एवं ध्यान मग्न देखा। वह उसे निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित करने, विक्षुब्ध करने और मनो-भावों में परिवर्तन करने में समर्थ न हो सका तो श्रान्त, खिन्न एवं ग्लान होकर धीरे-धीरे पीछे लौटा। पौषधशाला से बाहर निकला और पिशाच के रूप को त्याग दिया। तत्पश्चात् विकराल हाथी का रूप धारण किया। उसके सातों अङ्ग श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 211 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन