________________ धर्म ध्यान में स्थिर रहा। . भावार्थ पिशाचरूप धारी देवता के ऐसा कहने पर भी कामदेव श्रावक को न भय हुआ, न त्रास हुआ, न उद्वेग हुआ, न क्षोभ हुआ, न चंचलता आई और न संभ्रम हुआ। वह चुपचाप धर्मध्यान में स्थिर बना रहा। टीका–पिशाचरूप धारी देव की भयंकर गर्जना सुनकर भी कामदेव विचलित नहीं हुआ। . सूत्रकार ने उसकी दृढ़ता का वर्णन अभीत, अत्रस्त, अक्षुब्ध, अचलित, असंभ्रान्त तूषणीक, धर्मध्यानोपगत शब्दों द्वारा किया है। इसका अर्थ है उसके मन में भी किसी प्रकार की घबराहट या दुर्भावना नहीं आई। इससे उसके सम्यग् दर्शन अर्थात् धर्म विश्वास की दृढ़ता प्रकट होती है। जिस व्यक्ति के मन में आत्मा की अमरता तथा शरीर एवं बाह्य भोगों की नश्वरता रम गई है, वह किसी भी भय या प्रलोभन के सामने नहीं झुकेगा। पिशाच की पुनः तर्जनामूलम्–तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव धम्म-ज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चपि तच्चंपि कामदेवं एवं वयासी "हं भो! कामदेवा! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया! जइ णं तुमं अज्ज जाव ववरोविज्जसि // 67 // छाया ततः खलु स देवः पिशाचरूपः कामदेवं श्रमणोपासकमभीतं यावद्धर्मध्यानोपगतं विहरमाणं पश्यति, दृष्ट्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि कामदेवमेवमवादीत्-"हं भोः! कामदेव! श्रमणोपासक ! अप्रार्थितप्रार्थक ! यदि खलु त्वमद्य यावद् व्यपरोपयिष्यसे। शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे पिसायरूवे—वह पिशाचरूप धारी देव, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, अभीयं भय रहित, जाव—यावत्, धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं धर्मध्यान में लगे हुए, पासइ देखता है, पासित्ता देखकर, दोच्चंपि तच्चंपि—दूसरी बार और तीसरी बार भी, कामदेवं कामदेव को, एवं वयासी इस प्रकार बोला—हं भो! कामदेवा! समणोवासया! अप्पत्थियपत्थिया! अरे मृत्यु को चाहने वाले कामदेव श्रमणोपासक!, जइ णं तुम अज्ज—यदि तू आज शीलादि का परित्याग नहीं करेगा, जाव—यावत्, ववरोविज्जसि तो तू प्राणों से अलग कर दिया जाएगा। भावार्थ पिशाचरूप धारी देव ने श्रावक कामदेव को निर्भय यावत् धर्मध्यान में स्थिर देखा तो वह क्रमशः तीन बार इस बार प्रकार बोला—“अरे मृत्यु के इच्छुक कामदेव! यदि आज तू शीलादि का परित्याग नहीं करेगा तो यावत् मारा जाएगा।" श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 208 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन