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________________ पोसहसाला—पौषधशाला थी, जेणेव—और जहाँ, कामदेवे समणोवासए कामदेव श्रमणोपासक था, तेणेव—वहाँ, उवागच्छइ आया। उवागच्छित्ता—आकर, आसुरत्ते रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसीयमाणे क्रूरता से रुष्ट, कुपित, क्रोधोन्मत्त तथा हाँफता हुआ, कामदेवं समणोवासयं—कामदेव श्रमणोपासक को, एवं वयासी—इस प्रकार बोला—हं भो! कामदेवा समणोवासया! अरे कामदेव श्रमणोपासक !, अपत्थिय-पत्थिया–अप्रार्थित अर्थात् मृत्यु के प्रार्थी!, दुरंत-पंत-लक्खणा! दुष्टपर्यवसान तथा अशुभ लक्षणों वाले!, हीणपुण्णचाउद्दसिया! दुर्भाग्यपूर्ण चतुर्दशी को जन्मे, हिरि-सिरि-धिइ-कित्ति परिवज्जिया-लज्जा, लक्ष्मी, धैर्य तथा कीर्ति से रहित, धम्मकामया! धर्म की कामना करने वाले!, पुण्णकामया! पुण्य की कामना करने वाले!, सग्गकामया! स्वर्ग की कामना करने वाले!, मोक्खकामया! मोक्ष को चाहने वाले !, धम्मकंखिया धर्माकांक्षी, पुण्णकंखिया!—पुण्य की इच्छा करने वाले, सग्गकंखिया! स्वर्ग की आकांक्षा करने वाले, मोक्खकंखिया! मोक्ष को चाहने वाले, धम्मपिवासिया धर्म पिपासु, पुण्णपिवासिया पुण्य के पिपासू !, सग्गपिवासिया स्वर्ग की पिपासा करने वाले!, मोक्खपिवासिया मोक्ष के पिपासो!. देवाणुप्पिया हे देवानुप्रिय!, नो खलु कप्पइ तव—तुझे नहीं कल्पता है, जं सीलाइं—शीलों, वयाइं व्रतों, वेरमणाई विरमणों, पच्चक्खाणाइं प्रत्याख्यानों, पोसहोववासाइं तथा पौषधोपवसों से, चालित्तए वा विचलित होना, खोभित्तए वा–विक्षुब्ध होना, खंडित्तए वा इन्हें खण्डित करना, भंजित्तए वा तथा भंग करना, उज्झित्तएं वा—त्यागना, परिच्हत्तए वा—इनका परित्याग करना, तं जइ णं तो यदि, तुमं अज्ज तू आज, सीलाइं जाव पोसहोववासाइं—शीलों यावत् पौषधोपवास को, न छड्डसि–नहीं छोड़ेगा, न भंजेसि—नहीं भङ्ग करेगा, तो तो, ते तुझे, अहं—मैं, अज्ज आज, इमेणं नीलुप्पल जाव असिणा—इस नील कमल आदि के समान श्याम रंग की तीखी तलवार से, खंडा-खंडिं करेमि–टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, जहा णं जिससे, तुमं देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रिय! तू, अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे आर्त्तध्यान के दुख के वशीभूत होता हुआ—अति विकट दुख भोगता हुआ, अकाले चेव-अकाल में ही, जीवियाओ-जीवन से, ववरोविज्जसि—पृथक् कर दिया जाएगा। . भावार्थ—उस पिशाच के घुटने लम्बे और लड़खड़ा रहे थे। भौहें विकृत, अस्त-व्यस्त तथा कुटिल थीं। मुँह फाड़ रखा था और जीभ बाहर निकाल रखी थी। सरटों (गिरगिटों) और चूहों की मालाएँ पहन रखी थीं। यही उसका मुख्य चिह्न था। नेवले कर्ण भूषण बने हुए थे। साँप उत्तरीय की तरह गले में डाल रखे थे। हाथ-पैर फटकार कर भयंकर गर्जना करते हुए उसने अट्टहास किया। उसका शरीर पाँच वर्ण के बालों से आच्छादित था। नीले उत्पल (नील कमल) के समान नीलवर्ण, भैंसे के सींग के समान टेढे तथा अलसी के फूल के समान चमकते हुए तीक्ष्ण धार वाले खड़ग को लेकर पौषधशाला में कामदेव के पास पहुँचा और क्रूरता पूर्वक रुष्ट, कुपित तथा प्रचण्ड होकर हाँफता हुआ बोला—“अरे कामदेव! तू मौत की इच्छा कर रहा है। तू दुष्टपर्यवसान (दुखान्त) और | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 205 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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