________________ सग्गकंखिया! मोक्खकंखिया! धम्म पिवासिया! पुण्ण पिवासिया! सग्गपिवासिया! मोक्खपिवासिया! नो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया! जं सीलाई वयाई वेरमणाई पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं चालित्तए वा, खोभित्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए वा, तं जइ णं तुमं अज्ज सीलाई जाव पोसहोववासाई न छड्डेसि न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल जाव असिणा खंडा-खंडिं करेमि, जहा णं तुमं देवाणुप्पिया, अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि // 65 // ___ छाया लडह-मडह-जानुकः, विकृतभग्न-भुग्न भ्रूः, अवदारित-वदन-विवर-निर्लालिताग्र जिह्वः, सरटकृतमालिकः, उन्दुरुमाला परिणद्धसुकृतचिन्हः, नकुलकृत कर्णपूरः, सर्पकृतवैकक्षः, आस्फोटयन्, अभिगर्जन, भीममुक्ताट्टाट्टहासः, नानाविध-पञ्चवर्णे रोमैरुपचितः एकं महान्तं नीलोत्पलगवल गुलिकाऽतसी कुसुमप्रकाशमसिं क्षुर-धारं गृहीत्वा येनैव पौषधशाला . येनैव कामदेवः श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति। उपागत्य आशुरक्तः, रुष्टः, कुपितः, चाण्डिक्यित, मिसमिसायमानः कामदेवं श्रमणोपासकमेवमवादीत्-"हं भो कामदेव! श्रमणोपासक! अप्रार्थित-प्रार्थक! दुरन्तप्रान्तलक्षण! हीनपुण्यचातुर्दशिक! ह्री-श्री-धृति-कीर्ति परिवर्जित! धर्मकाम! पुण्यकाम! स्वर्गकाम! मोक्षकाम! धर्मकांक्षिन्! पुण्यकांक्षिन्! स्वर्गकांक्षिन्! मोक्षकांक्षिन्! धर्मपिपासित! पुण्यपिपासित! स्वर्गपिपासित! मोक्षपिपासित! नो खलु कल्पते तव देवानुप्रिय! यत् शीलानि, व्रतानि, विरमणानि, प्रत्याख्यानानि, पौषधोपवासानि, चालयितुं वा, क्षोभयितुं वा, खण्डितुं वा, भङ्कतुं वा, उज्झितुं वा, परित्यक्तुं वा, तद् यदि खलु त्वमद्य शीलानि यावत्पौषधोपवासानि न. त्यक्ष्यसि न भंक्ष्यसि तर्हितेऽहमद्यानेन नीलोत्पल यावदसिना खण्डाखण्डिं करोमि यथा खलु त्वं देवानुप्रिय! आर्तदुःखात वशार्तोऽकाल एव जीविताद् व्यपरोपयिष्यसे / शब्दार्थ लडह मडह जाणुए उसके घुटने . लम्बे और लड़खड़ा रहे थे, विगय-भग्ग-भुग्ग-भुमए 5 भौंहे-विकृत, खण्डित तथा कुटिल थीं, अवदालिय वयण विवर निल्लालियग्गजीहे मुख फाड़ रखा था, जीभ बाहर निकाल रखी थी। सरडकय मालियाए—सरटों की माला सिर पर लपेट रखी थी, उंदुरमालापरिणद्ध सुकयचिंधे–बँधी हुई चूहों की माला उसकी पहचान थी। नउलकयकण्णपूरे कर्ण फूल के स्थान पर नेवले लटक रहे थे, सप्पकयवेगच्छे—साँपों का वैक्ष अर्थात् दुपट्टा बना रखा था, अप्फोडते—करास्फोट हाथ फटकारता हुआ, अभिगज्जंतेगर्जना करता हुआ, भीममुक्कट्टहासे—भयंकर अट्टहास करता हुआ, नाणाविह पंचवण्णेहिं लोमेहिं उवचिए नानाविध पांचवर्ण के रोमों से आवृत्त शरीर वह पिशाच, एगं महं—एक महान्, नीलुप्पल-नील उत्पल, गवलगुलिय—महिष के सींग के समान नीले, अयसि कुसुम प्पगासं—अलसी के फूल जैसी, असिं खुरधारं तीक्ष्ण धार वाली तलवार को, गहाय लेकर, जेणेवं—जहाँ, | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 204 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन