________________ धंसे हुए गढ़े जैसे थे और फटे हुए भूरे और वीभत्स थे। कंधे ढोल के समान थे। छाती नगर-कपाट के समान चौड़ी थी। भुजाएं कोष्ठिका (फूंकनी) के समान थीं। हथेलियाँ चक्की के पाट के समान मोटी थीं। हाथों की अंगुलियाँ लोढी के समान थीं। नाखून सीप के समान थे। स्तन छाती पर से लटक रहे थे, जैसे नाई के उपकरण रखने की थैलियाँ हों। पेट लोहे के कोठे (कुसूल) के समान गोल था। नाभि ऐसी गहरी थी जैसा जुलाहे का आटा-मांड घोलने का कुंडा हो। नेत्र छींके के समान थे। अण्डकोष भरे हुए दो थैलों (बोरियों) के समान थे। जंघाएँ समान आकार वाली दो कोठियों के समान थीं। घुटने अर्जुन वृक्ष के गुच्छ के समान टेढ़े-मेढे, विकृत और वीभत्स थे। पिण्डलियाँ कठोर और बालों से भरी थीं, पैर दाल पीसने की शिला की तरह थे। पैरों की अंगुलियां लोढ़ी जैसी आकृति वाली और पैरों के नख सीप के समान थे। ___टीका प्रस्तुत सूत्र में पिशाच के भयंकर रूप का वर्णन है। उसके प्रत्येक अंग की जो उपमाएं दी गई हैं वे बड़ी विचित्र हैं। साहित्य शास्त्र में प्रायः ऐसी नहीं मिलतीं। रामायण तथा अन्य काव्यों में राक्षसों के भयंकर रूप का वर्णन है। ताडका, शूर्पनखा आदि राक्षसियों ने भी अनेक विकराल रूप धारण किए थे किन्तु वह वर्णन दूसरे प्रकार का है। प्रस्तुत वर्णन में जो चित्रण है वह मानव वंश विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पिशाच का रूप धारण करने वाले इस देवता को मिथ्यात्वी कहा गया है, जो जैन साधक कामदेव को उसकी साधना से विचलित करने आया है। जैन परम्परा के साथ इस प्रकार का धार्मिक विद्वेष किस परम्परा में था, यह भी विचारणीय है। प्रतीत होता है कि पिशाच का सम्बन्ध किसी तापस परम्परा से है जिसका विरोध भगवान् पार्श्वनाथ ने किया था। उनके जीवन में भी कमठ नाम के तापस का वर्णन मिलता है। पिशाच का विकराल रूप और कामदेव को तर्जना मूलम्—लडह-मडह-जाणुए विगय-भग्ग-भुग्ग-भुमए अवदालिय-वयणविवरनिल्लालियग्गजीहे, सरड-कय-मालियाए, उंदुर-माला-परिणद्ध-सुकय चिंधे, नउल-कय-कण्ण-पूरे, सप्प-कय-वेगच्छे, अप्फोडते, अभिगज्जंते, भीम-मुक्कट्टहासे, नाणा-विह-पंच-वण्णेहिं लोमेहिं उवचिए एगं महं नीलुप्पलगवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासं असिं खुर-धारं गहाय, जेणेव पोसहसाला, जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता आसु-रत्ते रुठे-कुविए चंडिक्किए मिसिमिसियमाणे कामदेवं समणोवासयं, एवं वयासी "हं भो कामदेवा! समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया! दुरंत-पंत-लक्खणा! हीण-पुण्ण-चाउद्दसिया! हिरि-सिरी-धिइ-कित्ति-परिवज्जिया! धम्मकामया! पुण्णकामया! सग्गकामया! मोक्खकामया! धम्मकंखिया! पुण्णकंखिया! | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 203 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन /