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________________ पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया। कामदेवे गाहावई। भद्दा भारिया। छ हिरण्ण-कोडीओ. निहाण-पउत्ताओ, छ वुड्ढि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, छ व्वया दस-गोसाहस्सिएणं वएणं। समोसरणं। जहा आणंदो तहा निग्गओ, तहेव सावय-धम्म पडिवज्जइ। ____सा चेव वत्तव्यया जाव जेट्ट-पुत्तं-मित्त-नाइं आपुच्छित्ता, जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता जहा आणंदो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ // 12 // छाया एवं खलु जम्बूः! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्यासीत् / पूर्णभद्रश्चैत्यः / जितशत्रू राजा | कामदेवो गाथापतिः / भद्रा भार्या | षड् हिरण्यकोट्यो निधानप्रयुक्ताः, षड् वृद्धिप्रयुक्ताः, षड् प्रविस्तरप्रयुक्ताः, षड् व्रजा दश गोसाहनिकेणं व्रजेन | समवसरणम् . / यथानन्दस्तथानिर्गतः। तथैव श्रावक धर्मं प्रतिपद्यते, सा चैव वक्तव्यता। यावज्ज्येष्ठपुत्रं, मित्रज्ञातिमापृच्छ्य येनैव पौषधशाला तेनैवोपागच्छति, उपागत्य यथानन्दो यावत् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पद्य विहरित / शब्दार्थ एवं खलु जम्बू ! हे जम्बू! इस प्रकार, तेणं कालेणं—उस काल, तेणं समएणं-उस समय, चम्पा नामं—चम्पा नामक, नयरी नगरी, होत्था थी, पुण्णभद्दे चेइए—पूर्णभद्र नामक चैत्य था, जियसत्तू राया--जितशत्रु राजा था, कामदेवे गाहावई-कामदेवे गाथापति था,और उसकी, भद्दा भारिया भद्रा भार्या थी, छ हिरण्ण कोडीओ छ हिरण्य कोटि अर्थात् सुवर्ण मुद्राएँ, निहाण पउत्ताओ—उसके खजाने में रखे थे, छ वुड्डि पउत्ताओ छह करोड़ व्यापार में लगे थे, छ पवित्थर पउत्ताओ छह करोड़ प्रविस्तर अर्थात् गृह एवं तत्सम्बन्धी उपकरणों में लगे हुए थे, छ व्वया छह व्रज थे, दसगोसाहस्सिएणं वएणं एक व्रज में दस हजार गौएँ थीं, अर्थात् साठ हजार गौएँ थीं। समोसरणं भगवान् आए और उनका समवसरण हुआ, जहा—जिस प्रकार, आणंदे तहा—आनन्द घर से निकला था वह भी घर से उसी प्रकार, निग्गए—निकला, तहेव-उसी तरह, सावय धम्मं श्रावक धर्म को, पडिवज्जइ-ग्रहण किया, सा चेव—वही, वत्तव्वया वक्तव्यता यहाँ भी समझनी चाहिए, जाव यावत्, जेट्टपुत्तं-ज्येष्ठ पुत्र, मित्त-नाई और मित्रों तथा ज्ञातिजनों को, आपुच्छित्ता पूछकर, जेणेव–जहाँ, पोसहसाला—पौषधशाला थी, तेणेव—वहाँ, उवागच्छइ आया, उवागच्छित्ताआकर, जहा आणंदो—आनन्द के समान, जाव यावत्, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान् महावीर के, अंतियं—समीप स्वीकृत, धम्मपण्णत्तिं धर्म प्रज्ञप्ति को, उवसंपज्जित्ताणं—ग्रहण करके, विहरइ–विचरने लगा। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 168 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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