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________________ के छः विभाग किए गए हैं, जिन्हें आरा कहा जाता है। उत्सर्पिणी काल में प्रथम आरा अत्यन्त पाप पूर्ण , होता है। उस समय मनुष्यों के विचार अत्यन्त क्रूर होते हैं, श्रावक अथवा साधु किसी प्रकार की धार्मिक मर्यादा का अस्तित्व नहीं होता। द्वितीय आरे में पापवृत्ति अपेक्षाकृत न्यून होती है, फिर भी उस समय कोई जीव मोक्ष का अधिकारी नहीं होता। तृतीय तथा चतुर्थ आरे में उत्तरोत्तर धार्मिक भावना बढ़ती जाती है। उसी समय तीर्थङ्कर एवं अन्य महापुरुष उत्पन्न होते हैं और वे मोक्ष मार्ग का उपदेश करते हैं / पाँचवां आरा आने पर यह क्षेत्र कर्मभूमि के स्थान पर भोग भूमि बन जाता है, अर्थात् उस समय लोग कल्पवृक्षों से स्वयं प्राप्त वस्तुओं पर अपना निर्वाह करते हैं। आजीविका के लिए खेती, युद्ध आदि किसी प्रकार के कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती। परिणामस्वरूप पापवृत्ति भी उत्तरोत्तर घटती चली जाती है। छठे आरे में यह और भी कम हो जाती है। अवसर्पिणी काल का प्रथम आरा उत्सर्पिणी काल के छठे आरे के समान होता है। इसी प्रकार अवसर्पिणी का द्वितीय उत्सर्पिणी के पंचम के समान अर्थात् अवसर्पिणी के प्रथम दोनों आरे भोग भूमि के माने जाते हैं। तृतीय, चतुर्थ में ही तीर्थङ्करादि उत्पन्न होते हैं और धर्मोपदेश होता है। पञ्चम में पुनः धर्म का ह्रास होने लगता है और छठे में वह सर्वथा लुप्त हो जाता है। वर्तमान समय अवसर्पिणी का पंचम आरा माना जाता है, इस समय भरत क्षेत्र से कोई व्यक्ति मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। किन्तु महाविदेह क्षेत्र में इस प्रकार परिवर्तन नहीं होता। वहाँ सदा चौथा आरा बना रहता है। तीर्थङ्कर विचरते रहते हैं, जिन्हें विहरमाण कहा जाता है और मोक्ष का द्वार सदा खुला रहता है। भरत क्षेत्र में धर्मानुष्ठान द्वारा आत्म विकास करने वाले अनेक व्यक्तियों के लिए शास्त्रों में बताया गया है कि वे स्वर्ग लोक में जीवन पूरा करके महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे और वहाँ मोक्ष प्राप्त करेंगे। आनन्द श्रमणोपासक भी महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि-मोक्ष को प्राप्त करेगा। प्रस्तुत अध्ययन की समाप्ति पर सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं—“हे जम्बू! मैंने भगवान् से जैसा सुना वैसा तुम्हें बता रहा हूँ। जिस प्रकार उपनिषदों में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी, जनक, श्वेतकेतु, जाबाल, यमनचिकेता संवाद मिलते हैं और उनमें आत्म तत्त्व एवं जगत् के गम्भीर रहस्यों का प्रतिपादन किया गया है, तथा बौद्ध साहित्य में भगवान् बुद्ध तथा उनके प्रधान शिष्य आनन्द के परस्पर संवाद मिलते हैं, उसी प्रकार जैन आगमों में सर्वप्रथम भगवान् महावीर तथा गौतम स्वामी के परस्पर संवाद हैं। गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं और भगवान् उत्तर के रूप में सिद्धान्तों का निरूपण करते हैं। दूसरे संवाद, सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी के बीच हैं। भगवान महावीर की परम्परा सुधर्मा स्वामी से प्रारम्भ होती है। वे श्रुतकेवली और चौथे गणधर थे, उनके शिष्य जम्बू स्वामी तथा जम्बू स्वामी के शिष्य प्रभव स्वामी हुए। वर्तमान जैन आगम सुधर्मास्वामी की रचना माने जाते हैं, क्योंकि उन्होंने ही भगवान् महावीर से उन्हें अर्थ के रूप में सुना और शब्दों के रूप में स्वयं गुम्फन करके जम्बू स्वामी को उपदेश किया / || सप्तम अंग उपासकदशाङ्ग-सूत्र का आनन्द अध्ययन समाप्त || श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 166 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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