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________________ छाया आनन्दः खलु भदन्त! देवस्तस्माद्देवलोकादायुः क्षयेण, भवक्षयेण, स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्रोत्पत्स्येते? गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति / निक्षेपः / || सप्तमस्याङ्गस्योपासकदशानां प्रथमानन्दमध्ययनं समाप्तम् // 1 // शब्दार्थ गौतम ने प्रश्न किया भंते! हे भगवन्!, आणंदे णं—आनन्द, देवे देव, ताओ उस, देवलोगाओ देवलोक से, आउक्खएणं आयुक्षय होने पर, भवक्खएणं भवक्षय होने पर, ठिइक्खएणं स्थिति क्षय होने पर, अणंतरं—अनन्तर, चयं चइत्ता वहाँ से च्यवन करके, कहिं कहाँ, गच्छिहिइ जायगा?, कहिं—और कहाँ, उववज्जिहिइ उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया, गोयमा हे गौतम! महाविदेहे वासे—महाविदेह वर्ष में, सिज्झिहिइ–सिद्ध होगा। भावार्थ गौतम स्वामी ने प्रश्न किया हे भगवन्! आनन्द देव आयु, भव तथा स्थिति के क्षय होने पर देव शरीर का परित्याग कर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् महावीर ने उत्तर दिया हे गौतम! आनन्द महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और वहाँ से सिद्धगति प्राप्त करेगा। ___निक्षेप सुधर्मा स्वामी ने कहा- "हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशाङ्ग सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह भाव बताया है, वैसा ही मैं तुमसे कहता हूं।" टीका प्रस्तुत सूत्र में आनन्द के भविष्य का कथन है। गौतम स्वामी ने पूछा भगवन्! देवत्व की अवधि समाप्त होने पर आनन्द कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया 'महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा।' . यहाँ दो बातें उल्लेखनीय हैं। पहली बात यह है कि जैन परम्परा में देवत्व कोई शाश्वत अवस्था नहीं है। मनुष्य तपस्या एवं अन्य शुभ कर्मों द्वारा उसे प्राप्त करता है और उपार्जित पुण्य समाप्त हो जाने पर पुनः मर्त्यलोक में आ जाता है। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में देवता शाश्वत शक्ति के प्रतीक हैं, इतना ही नहीं, जीवों के शुभाशुभ कर्मों के फल एवं भविष्य पर उनका नियन्त्रण है। किन्तु उपनिषदों में देवत्व का वह स्थान नहीं रहा। वहाँ जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष या अमृत्तत्व की प्राप्ति हो गया और देव अवस्था को नश्वर बताया गया। वहाँ स्पष्ट रूप से बताया गया है—“क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति" अर्थात् देवता भी पुण्यक्षीण हो जाने पर मर्त्यलोक में आ जाते हैं। इतना ही नहीं, वहाँ देवत्व प्राप्ति के साधन रूप यज्ञ आदि कर्मानुष्ठान को दुर्बल नौकाएँ बताया गया है, अर्थात् वे मानव को जीवन के चरम लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकतीं "प्लावह्येते अदृढाः यज्ञरूपाः अष्टादशोक्तमवरमेषु कर्म।" अर्थात् यज्ञ रूपी नौकाएँ जिनमें अठारह प्रकार का कर्म बताया गया है दृढ़ नहीं हैं। . दूसरी बात महाविदेह क्षेत्र की है, पहले यह बताया जा चुका है कि विश्व एक कालचक्र के अनुसार घूमता रहता है। उत्थान के पश्चात् पतन और पतन के पश्चात् उत्थान का अनवरत क्रम चल रहा है। जैन परम्परा में उत्थान काल उत्सर्पिणी और पतन काल को अवसर्पिणी काल कहा गया है। प्रत्येक काल श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 165 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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