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________________ अत्ताणं—अपनी आत्मा को, झूसित्ता–शुद्ध करके, सद्धिं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता–साठ बार का , अनशन पूरा करके, आलोइय पडिक्कते—आलोचना प्रतिक्रमण करके, समाहिपत्ते समाधि में लीन रहता हुआ, कालमासे कालं किच्चा—अन्तिम समय आने पर, सोहम्मे कप्पे—सौधर्म कल्प में, सोहम्मवडिंसगस्स— सौधर्मावतंसक, महाविमाणस्स—महाविमान के, उत्तरपुरत्थिमेणं उत्तरपूर्व अर्थात् ईशानकोण में, अरुणे विमाणे—अरुण विमान में, देवत्ताए—देवरूप में, उववन्ने—उत्पन्न हुआ, तत्थ णं वहाँ, अत्थेगइयाणं देवाणं अनेक देवों की चत्तारि पलिओवमाइं–चार पल्योपम की, ठिई स्थिति, पण्णत्ता—कही गई है, तत्थ णं वहाँ, आणंदस्स वि देवस्स—आनन्द देव की भी, चत्तारि पलिओवमाई–चार पल्योपम की, ठिई-स्थिति, पण्णत्ता—कही गई है। भावार्थ तदनन्तर आनन्द श्रावक बहुत से शीलव्रत आदि के द्वारा आत्मा को संस्कारित करता रहा, उसने श्रावक व्रतों का पालन किया। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ स्वीकार की। अन्त में एक मास की संलेखना ली और साठ बार के भोजन अर्थात् तीस दिन का अनशन करके मृत्युकाल आने पर समाधिमरण को प्राप्त हुआ। मरकर वह सौधर्म देवलोक, सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशानकोण में स्थित अरुण विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ बहुत से देवताओं की आयु मर्यादा चार पल्योपम की बताई गई है। आनन्द की आयु मर्यादा भी चार पल्योपम है। ___टीका प्रस्तुत पाठ में आनन्द के जीवन का उपसंहार किया गया है। वह बीस वर्ष तक श्रमणोपासक रहा, साढ़े चौदह वर्ष बीतने पर घर छोड़कर पौषधशाला में रहने लगा। वहाँ उसने क्रमशः ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ स्वीकार की और ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा में साधु के समान जीवन व्यतीत करने लगा। ज्यों-ज्यों आत्मशुद्धि होती गई उसका उत्साह बढ़ता चला गया, क्रमशः उसने अन्तिम संलेखना व्रत ले लिया और जीवन एवं मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए शान्तचित्त होकर आत्मचिन्तन में लीन रहने लगा। एक महीने के उपवास के पश्चात् शरीरान्त हो गया और सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। उसके विचारों में उत्तरोत्तर दृढ़ता आती गई, उत्साह बढ़ता गया और अन्त तक चित्त शान्त रहा। एक महीने का उपवास होने पर भी मनोदशा में परिवर्तन नहीं हुआ। शास्त्रकार ने इस बात का पुनः-पुनः उल्लेख किया है। ___आनन्द का भविष्यमूलम् - “आणंदेणं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ?" “गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ" | निक्खेवो // 60 // // सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं पढमं आणंदज्झयणं समत्तं // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 164 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन ध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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