________________ दोष की आलोचना की तथा प्रायश्चित्त के रूप में आनन्द श्रावक से क्षमा याचना की। कुछ समय पश्चात् भगवान् महावीर दूसरे जनपदों को विहार कर गए और धर्म प्रचार करते हुए विचरने लगे। टीका—गौतम स्वामी ने भगवान् के आदेश को 'तथेति' कहकर स्वीकार किया और आनन्द से क्षमा याचना की। यह बात उनके उदात्त चारित्र को प्रकट करती है। महातपस्वी, महाज्ञानी तथा प्रधान गणधर होने पर भी उन्हें श्रावक से क्षमा याचना करने में संकोच नहीं हुआ। संघ में सर्वमान्य होने पर भी उनके मन में किसी प्रकार का अभिमान नहीं था। तदनन्तर, भगवान् महावीर वाणिज्य ग्राम से प्रस्थान कर गए और धर्मोपदेश करते हुए विभिन्न जनपदों में विचरने लगे। . आनन्द के जीवन का उपसंहारमूलम् तए णं से आणंदे समणोवासए बहूहिं सील-व्वएहिं जाव अप्पाणं भावेत्ता, वीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्मं काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कते, समाहि-पत्ते, काल-मासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसगस्स महा-विमाणस्स उत्तर-पुरस्थिमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता // 86 // ___ छाया ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासको बहुभिः शीलव्रतैर्यावदात्मानं भावयित्वा विंशति वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयित्वा एकादश चोपासकप्रतिमाः सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा मासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं जोषयित्वा षष्टि भक्तान्यनशनेन छित्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मावतंसकस्य महाविमानस्योत्तरपौरस्त्ये खलु अरुणे विमाने देवत्वेनोपपन्नः, तत्र खलु अस्त्येकानां देवानां चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु आनन्दस्यापि देवस्य चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ___ शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से आणंदे समणोवासए—वह आनन्द श्रमणोपासक, बहूहिं सीलव्वएहिं अनेक प्रकार के शील एवं व्रतों के द्वारा, जाव—यावत्, अप्पाणं—अपनी आत्मा को, भावेत्ता—संस्कारित करके, वीसं वासाइं बीस वर्ष तक, समणोवासग परियागं श्रमणोपासक पर्याय को, पाउणित्ता पालन करके, एक्कारस य उवासग पजिमाओ—ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का, सम्म काएणं फासित्ता–सम्यक् पालन करके, मासियाए संलेहणाए—एक मास की संलेखना द्वारा, / ' श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 163 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन