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________________ मिलने पर इत्यादि, तं चेव सव्वं कहेइ-सारी घटनाएँ कह सुनाईं, जाव यावत्, तए णं-उससे, अहं—मैं, सङ्किए - शंकित होकर, आणंदस्स समणोवासगस्स—आनन्द श्रमणोपासक के, अंतियाओ-पास से, पडिणिक्खमामि निकला, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, जेणेव इहं—यहाँ आप विराजमान हैं, तेणेव—वहाँ, हव्वमागए—शीघ्रतापूर्वक आया हूँ, तं गं तो क्या, भंते—भगवन्! किं—क्या, तस्स ठाणस्स-उस स्थान के लिए, आणंदेणं समणोवासएणं—आनन्द श्रमणोपासक को, आलोएयव्वं—आलोचना करनी चाहिए, जाव पडिवज्जेयव्वं यावत् ग्रहण करना चाहिए, उदाहु–अथवा, मए—मुझे, गोयमा इ–'गौतम!' यह सम्बोधन करते हुए समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर ने, भगवं गोयमं—भगवान् गौतम को, एवं वयासी इस प्रकार कहा—गोयमा हे गौतम!, तुमं चेव णं तुम ही, तस्स ठाणस्स—उस स्थान की, आलोएहि—आलोचना करो, जाव यावत्, पडिवज्जाहि तपःकर्म स्वीकार करो, आणंदं च समणोवासयं—और आनन्द श्रमणोपासक से, एयमढें इस बात के लिए, खामेहि—क्षमा प्रार्थना करो। ___ भावार्थ तदनन्तर भगवान् गौतम आनन्द श्रमणोपासक के इस प्रकार कहने पर शंका, कांक्षा, एवं विचिकित्सा से युक्त होकर आनन्द के पास से बाहर निकले और दूतिपलाश चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर के पास पहुंचे। वहाँ भगवान् के समीप गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। एषणीय और अनेषणीय की आलोचना की। भगवान् को भोजन पानी दिखलाया, वन्दना नमस्कार किया और कहा- “मैं आपकी अनुमति प्राप्त करके इत्यादि गौतम ने पूर्वोक्त समस्त घटनाएँ कह सुनाईं, अन्त में कहा मैं शंकित होकर आपकी सेवा में आया हूँ।" भगवन्! उस पाप स्थान की आलोचना तथा तपस्या आनन्द को करनी चाहिए अथवा मुझ को?' 'गौतम' इस प्रकार सम्बोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने उत्तर दिया, “है गौतम! तुम ही उस असत्य भाषण रूप पाप-स्थान के लिए आलोचना यावत् तपःकर्म स्वीकार करो तथा आनन्द श्रावक से इस अपराध के लिए क्षमा याचना करो।" ___टीका—आनन्द का उत्तर सुनकर गौतम स्वामी विचार में पड़ गए। इस विषय में भगवान् से पूछने का निश्चय किया। ___ यहाँ सूत्रकार ने तीन शब्द दिए हैं—'संकिए कंखिए और विइगिच्छे', इन शब्दों का निरूपण पहले किया जा चुका है। गौतम स्वामी के मन में संदेह उत्पन्न हो गया, और वह डावाँडोल होने लगा। - वे भगवान् के पास पहुंचे और मुनि की आचार मर्यादा के अनुसार सर्वप्रथम एषणीय और अनेषणीय की आलोचना की। एषणीय का अर्थ है मुनि द्वारा ग्रहण करने योग्य वस्तुएँ और अनेषणीय का अर्थ है ग्रहण न करने योग्य वस्तुएँ / गौतम स्वामी ने शान्त चित्त से बैठकर इस बात की आलोचना की कि मैंने कोई ऐसी वस्तु तो नहीं ली जो ग्रहण करने योग्य नहीं थी या भिक्षा के लिए घूमते समय एवं उसे ग्रहण करते समय कोई मर्यादा विरुद्ध कार्य तो नहीं किया। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 161 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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