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________________ गया था, जिसे हम आगम की भाषा में श्रमणभूत कहते हैं। जैन परम्परा में वेश का उतना महत्व नहीं, जितना कि आध्यात्मिक भावों का महत्व है। यही कारण है कि सिद्धों के पन्द्रह भेदों में जैन साधु ही नहीं, गृहस्थ एवं परिव्राजक, संन्यासी आदि जैनेतर साधुओं को भी मोक्ष का अधिकारी माना गया है। परन्तु उपर्युक्त विचार चर्चा से ध्वनित होता है कि गौतम स्वामी की धारणा कुछ विलक्षण भूमिका पर पहुंच गई थी। उनकी दृष्टि में इस प्रकार का उच्च ज्ञान मुनि को ही उत्पन्न हो सकता है, गृहस्थ को नहीं, इसी धारणा के कारण उन्होंने आनन्द को आत्म-विशुद्धि के लिए प्रायश्चित लेने की प्रेरणा दी। . यहाँ मिथ्या भाषण रूप दोष के लिए गौतम स्वामी ने आनन्द को आलोचना तथा तपःकर्म के लिए कहा और आनन्द ने गौतम स्वामी को। आलोचना का अर्थ है—अपने दोष को अच्छी तरह देखना या समझना और उसे पुनः न करने का निश्चय करना तपःकर्म आन्तरिक-शुद्धि के लिए किया जाता है, किसी प्रकार की भूल होने पर या दोष लगने पर यदि मनुष्य उस पर अच्छी तरह विचार करे, दोष के रूप में समझ ले, पुनः न करने का दृढ़ संकल्प करे और साथ ही भूल की तरतमता के अनुसार एक उपवास दो उपवास, आदि छोटा-बड़ा तपश्चरण प्रायश्चित्त के रूप में कर ले तो उस भूल के पुनः होने की संभावना नहीं रहती। आत्मशुद्धि का यह मार्ग जैन परम्परा में अब भी प्रचलित है। जैन साधु एवं श्रावक अपनी भूलों के लिए प्रतिदिन चिन्तन एवं पश्चात्ताप करते हैं और छोटी-बड़ी तपस्या अंगीकार करते हैं। ____ गौतम स्वामी महातपस्वी, महाज्ञानी तथा कठोर चर्या वाले साधु थे। आनन्द ने उनके प्रति श्रद्धा रखते हुए भी जिस प्रकार उत्तर दिया, वह ध्यान देने योग्य है। वह पूछता है—“क्या जैन शासन में सत्य, तथ्य, तात्विक एवं सद्भूत वस्तु के लिए भी आलोचना तथा प्रायश्चित करना होता है?" उसका यह वाक्य वैदिक परंपरा से जैन परम्परा का भेद प्रकट करता है, उसका अभिप्राय है कि जैन परम्परा किसी की आज्ञा के कथन या शब्द पर आधारित नहीं है अर्थात् यहाँ किसी के कथनमात्र से कोई बात भली या बुरी नहीं होती, यहाँ तो सत्य ही एकमात्र कसौटी है। गौतम का शंकित होकर भगवान् के पास आना___ मूलम् तए णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे, संकिए कंखिए विइगिच्छा समावन्ने, आणंदस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, 2 त्ता जेणेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूर-सामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ, 2 त्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 ता एवं श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 186 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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