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________________ जिणवयणे जिन शासन में, संताणं सत्य, तच्चाणं तात्त्विक, तहियाणं तथ्य तथा, सब्भूयाणं—सद्भूत, भावाणं-भावों के लिए भी, आलोइज्जइ—आलोचना की जाती है?, जाव–और यावत् पडिवज्जिज्जइ तपःकर्म स्वीकार किया जाता है? गौतम ने उत्तर दिया, नो इणद्वे समढे—ऐसा नहीं है, तब आनन्द ने कहा—भंते! हे भगवन्!, जइ णं यदि, जिणवयणे जिन प्रवचन में, संताणं जाव भावाणं सत्य आदि भावों की, नो आलोइज्जइ—आलोचना नहीं होती, जाव—यावत् उनके लिए, तवोकम्मं तपः कर्म, नो पडिवज्जिज्जइ–नहीं स्वीकार किया जाता, तं णं तो भंते! हे भगवन्!, तुब्भे चेव आप ही, एयस्स ठाणस्स—इस स्थान के लिए, आलोएह—आलोचना कीजिए, जाव—यावत्, पडिवज्जह तपः कर्म स्वीकार कीजिए। भावार्थ तदनन्तर भगवान् गौतम ने आनन्द श्रावक से यह कहा कि- "हे आनन्द! गृहस्थ अवस्था में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान तो उत्पन्न हो सकता है, परन्तु इतना विशाल नहीं। अतः हे आनन्द! इस असत्य भाषण की आलोचना करो यावत् आत्म-शुद्धि के लिए उचित तपश्चरण स्वीकार करो।" __इसके पश्चात् आनन्द भगवान् गौतम से बोला—'हे भगवन्! क्या जिन प्रवचन में सत्य, तात्विक, तथ्य और सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना की जाती है? यावत् तपःकर्म स्वीकार किया जाता है?" भगवान् गौतम ने उत्तर दिया-“आनन्द! ऐसा नहीं हो सकता।" आनन्द ने कहा-“भगवन्! यदि जिन प्रवचन में सत्य आदि भावों की आलोचना नहीं होती और उनके लिए तपःकर्म स्वीकार नहीं किया जाता तो भगवन्! आप ही इस विषय में आलोचना कीजिए और तपःकर्म ग्रहण कीजिए।" टीका—आनन्द के पूछने पर गौतम स्वामी ने बताया कि गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है। किन्तु आनन्द ने जब अपने ज्ञान के विस्तृत क्षेत्र का निरूपण किया तो गौतम स्वामी को संदेह हो गया, उनकी यह धारणा थी कि गृहस्थ को इतना विशाल ज्ञान नहीं हो सकता। उन्हें आनन्द का कथन मिथ्या प्रतीत हुआ, परिणामस्वरूप उसे आलोचना तथा प्रायश्चित्त स्वरूप तपश्चरण के लिए कहा। आनन्द ने नम्रता किन्तु दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया "भगवन् ! क्या सच्ची बात के लिए भी आलोचना तथा प्रायश्चित होता है? यदि ऐसा नहीं है तो आप ही आलोचना तथा प्रायश्चित कीजिए।" इस वक्तव्य में कई बातें ध्यान देने योग्य हैं। आनन्द ने मुनिव्रत स्वीकार नहीं किया था, वह गृहस्थ था, उसका वेश भी गृहस्थ का ही था। फिर भी वह साधना की दृष्टि से उस अवस्था पर पहुँच श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 188 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन .
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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