________________ ममवि गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिनाणे समुप्पण्णे पुरथिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयण सयाइं जाव लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि॥ 83 // छाया-ततः खलु स भगवान् गौतमः येनैव आनन्दः श्रमणोपासकः तेनैव उपागच्छति / ततः खलु स आनन्दो भगवतो गौतमस्य त्रिःकृत्वो मूर्धा पादौ वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्कृत्य एवमवादीत्– “अस्ति खलु भदन्त! गृहिणो गृहमध्याऽऽवसतोऽवधिज्ञानं समुत्पद्यते?" "हन्त! अस्ति।" “यदि खलु भदन्त! गृहिणो यावत्समुत्पद्यते, एवं खलु भदन्त! ममापि गृहिणो गृहमध्याऽऽवसतोऽवधिज्ञानं समुत्पन्नम्—पौरस्त्ये खलु लवणसमुद्रे पञ्चयोजन-शतानि यावत् लोलुपाच्युतं नरकं जानामि पश्यामि / शब्दार्थ तए णं तत्पश्चात्, से भगवं गोयमे भगवान् गौतम, जेणेव . आणंदे समणोवासए—जहाँ आनन्द श्रमणोपासक था, तेणेव वहाँ, उवागच्छइ–आए। तए णं तदनन्तर, से आणंदे—आनन्द ने, भगवओ गोयमस्स भगवान् गौतम को, तिक्खुत्तो तीन बार, मुद्धाणेणं मस्तक से, पाएसु पैरों में, वंदइ-वन्दना की, नमसइ नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता—वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासी—इस प्रकार कहा, अस्थि णं / भंते भगवन्! क्या, गिहिणो—गृहस्थ को, गिहमज्झावसंतस्स घर में रहते हुए, ओहिनाणं अवधिज्ञान, समुपज्जइ?-उत्पन्न हो सकता है? गौतम ने उत्तर दिया, हंता अत्थि हाँ हो सकता है, पुनः आनन्द ने कहा—भंते! हे भगवन्, जइ णं यदि, गिहिणो जाव समुपज्जइ–गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है तो, भंते! हे भगवन्, एवं खलु इस प्रकार, मम वि गिहिणो मुझ गृहस्थ को भी, गिहमज्झावसंतस्स घर में रहते हुए को, ओहिनाणे समुप्पण्णे—अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, पुरथिमे णं पूर्व की ओर, लवण' समुद्दे लवण समुद्र. पंच जोयण सयाइं—पाँच सौ योजन, जाव—यावत्, लोलुयच्चुयं लोलुपाच्युत, नरयं-नरक को, जाणामि पासामि—जानता हूं, देखता हूं। भावार्थ तदनन्तर भगवान् गौतम आनन्द श्रमणोपासक के पास आए। उसने उन्हें तीन बार मस्तक झुकाकर वन्दना नमस्कार किया और पूछा-भगवन्! क्या गृहस्थ को घर में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है? गौतम–“हाँ, आनन्द ! हो सकता है।" आनन्द–“भगवन् ! यदि गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, तो मुझे भी अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। उसके द्वारा मैं पूर्व की ओर लवणसमुद्र में पाँच सौ योजन तक, अधोलोक में लोलुपाच्युत नरक तक जानने तथा देखने लगा हूं। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 186 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन