________________ एह—पधारिए, ' जा णं जिससे मैं, देवाणुप्पियाणं देवानुप्रिय को, तिक्खुत्तो-तीन बार, मुद्धाणेणं—मस्तक द्वारा, पाएसु-चरणों में, वंदामि नमसामि वन्दना-नमस्कार करूं / भावार्थ—आनन्द श्रावक ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा और अतीव प्रसन्न होकर उन्हें नमस्कार कर इस प्रकार कहा- "हे भगवन्! मैं उग्रतपस्या के कारण अतीव कृश हो गया हूं, कि बहुना, सारा शरीर उभरी हुई नाड़ियों से व्याप्त हो गया है। अतः देवानुप्रिय के समीप आने तथा तीन बार मस्तक झुकाकर चरणों में वन्दना करने में असमर्थ हूं। भगवन्! आप ही स्वेच्छापूर्वक बिना किसी दबाव के मेरे पास पधारिए, जिससे देवानुप्रिय के चरणों में तीन बार मस्तक झुकाकर वन्दना कर सकूँ। टीका—गौतम स्वामी को आया जानकर आनन्द अत्यन्त प्रसन्न हुआ। किन्तु उसमें इतनी शक्ति नहीं थी कि उठकर उनके सामने जाता और वन्दना नमस्कार करता / आनन्द उपासक ने लेटे ही लेटे प्रसन्नता प्रकट की और चरण स्पर्श करने के लिए उन्हें समीप आने की प्रार्थना की। इच्छाकारेणं इसका अर्थ है स्वेच्छापूर्वक, जैन आगमों में गुरुजनों से किसी प्रकार का अनुरोध करते समय इस शब्द का प्रयोग मिलता है। अणभिओगेणं अभियोग का अर्थ है बलप्रयोग या बाध्य करना / प्रस्तुत सूत्र में आनन्द गौतम स्वामी से प्रार्थना करते समय अनभियोग शब्द का प्रयोग करता है। इस पाठ से तीन बातें प्रकट होती हैं-१. गौतम स्वामी के आने पर आनन्द का प्रसन्न होना, वह तपस्या से कृश हो गया था, और सारे शरीर पर नसें उभर आई थीं, फिर भी उसके मन में शान्ति थी और गुरुजन के आने पर उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा। 2. वह इतना कृश हो गया था कि शय्यां से उठने की सामर्थ्य ही नहीं रही, फिर भी गौतम स्वामी के प्रति आदर एवं भक्ति प्रकट करने की पूरी भावना थी। इसीलिए उसने संकोच के साथ उन्हें अपने पास आने की प्रार्थना की। इसका अर्थ है श्रावक को सामान्यतः गुरुजनों के समीप जाकर ही वन्दना नमस्कारादि करना चाहिए, किन्तु अशक्ति आदि के कारण अपवाद रूप में इस प्रकार की प्रार्थना कर सकते हैं। 3. गुरुजनों से प्रार्थना आदेश के रूप में नहीं की जाती इसीलिए यहाँ ‘इच्छाकारेणं और अनभियोगेणं' शब्दों का प्रयोग है। आनन्द द्वारा अपने अवधिज्ञान की सूचनामूलम्त एणं से भगवं गोयमे जेणेव आणंदे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ // 12 // तए णं से आणंदे भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–“अस्थि णं भंते! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिनाणं समुपज्जइ?" "हंता अस्थि", "जइ णं भंते! गिहिणो जाव समुपज्जइ, एवं खलु भंते! | . श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 185 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /