________________ भावार्थ अनेक मनुष्यों से यह बात सुनकर गौतम जी के मन में यह विचार आया कि मैं इधर-का-इधर ही जाऊँ, और आनन्द श्रमणोपासक को देखू / यह विचार कर वे कोल्लाक सन्निवेश में स्थित पौषधशाला में बैठे हुए आनन्द श्रावक के पास आए। टीका भिक्षार्थ घूमते हुए गौतम स्वामी कोल्लाक सन्निवेश में पहुँचे। वहां उन्होंने परस्पर चर्चा करते हुए लोगों से आनन्द के विषय में सुना कि किस प्रकार उसने संलेखना व्रत ले रखा है, और आमरण भोजन तथा पानी का परित्याग कर दिया है। उनके मन में भी आनन्द के पास जाने की उत्कण्ठा जागृत हुई। आनन्द का गौतम स्वामी को अपने पास आने का निमन्त्रणमूलम् तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठ जाव हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी—“एवं खलु भन्ते! अहं इमेणं उरालेणं जाव धमणिसंतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउब्भवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुब्भे णं भन्ते! इच्छाकारेणं अणभिओगेणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि नमसामि" || 81 // छाया–ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासको भगवन्तं गौतमं ईर्यमाणं पश्यति। दृष्ट्वा हृष्ट—यावद् हृदयो भगवन्तं गौतमं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्कृत्य एवमवादीत्—“एवं खलु भदन्त! अहमनेनोदारेण यावद् धमनिसन्ततो जातः, नो शक्नोमि देवानुप्रियस्यान्तिकं प्रादुर्भूय त्रिःकृत्वो मूर्धा पादावभिवन्दितुम् / यूयं भदन्त! इच्छाकारेणाऽनभियोगेनेतश्चैव एत, यस्मात् खलु देवानुप्रियाणां त्रिःकृत्वो मूर्धा पादयोर्वन्दे नमस्यामि / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से आणंदे समणोवासए उस आनन्द श्रमणोपासक ने, भगवं गोयमं—भगवान् गौतम को, एज्जमाणं-आते हुए, पासइ देखा, पासित्ता देखकर, हट्ठ जाव हियए हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रसन्न हृदय होकर, भगवं गोयमं—भगवान गौतम को, वंदइ नमसइ-वन्दना नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता—वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासी इस प्रकार कहा, भंते! हे भगवन्! एवं खलु इस प्रकार, अहं—मैं, इमेणं उरालेणं इस उदार तपस्या से, जावं यावत्, धमणिसंतए धमनियों से व्याप्त, जाए हो गया हूं, अतः, देवाणुप्पियस्स देवानुप्रिय के, अंतियं—पास में, पाउब्भवित्ता णं—आकर, तिक्खुत्तो-तीन बार, मुद्धाणेणं—मस्तक से, पाए—पैरों को, अभिवंदित्तए वन्दना करने में, नो संचाएमि समर्थ नहीं हूं, भंते! हे भगवन् आप ही, इच्छाकारेणं स्वेच्छापूर्वक, अणभिओगेणं और बिना किसी दबाव के, इओ चेव—यहाँ, श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 184 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन