________________ पडिग्गाहित्ताः ग्रहण करके, वाणियग्गामाओ वाणिज्यग्राम नगर से, पडिणिग्गच्छइ निकले, पडिणिग्गच्छित्ता-निकल करके, कोल्लायस्स सन्निवेसस्स—जब वे कोल्लाक सन्निवेश के, अदूरसामंतेणं-पास से, वीइवयमाणे—जा रहे थे तो, बहुजणसइं बहुत से मनुष्यों को, निसामेइ—यह कहते हुए सुना, बहुजणो—बहुत मनुष्य, अन्नमन्नस्स—परस्पर, एवमाइक्खइ इस प्रकार कह रहे थे देवाणुप्पिया हे देवानुप्रियो ! एवं खलु इस प्रकार, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान महावीर का, अंतेवासी शिष्य, आणंदे नाम समणोवासए—आनन्द नामक श्रावक, पोसहसालाए—पौषध शाला में, अपच्छिम जाव अणवकंखमाणे—अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना किए हुए यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए, विहरइ–विचर रहा है। भावार्थ तंदनन्तर भगवान गौतम न वाणिज्यग्राम नगर में व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित साधुजनोचित कल्प के अनुसार भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करते हुए यथापर्याप्त अन्नजल ग्रहण किया और वाणिज्यग्राम नगर से बाहर निकलकर कोल्लाक सन्निवेश के पास पहुँचे। बहुत से मनुष्यों को बात करते हुए सुना कि हे देवानुप्रियो! श्रमण भगवान् महावीर का शिष्य आनन्द श्रमणोपासक पौषधशाला में अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना किए हुए यावत् जीवन-मरण की आकांक्षा न रखते हुए विचर रहा है। .. .. गौतम का आनन्द के पास पहुँचनामूलम् तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए 4 "तं गच्छामि णं आणंदं समणोंवासयं पासामि।" एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव आणंदे समणोवासए, जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ || 80 // . छाया ततः खलु तस्य गौतमस्य बहुजनस्यान्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्यायमेतद्प अध्यात्मिकः ४-तंद् गच्छामि खलु आनन्दं श्रमणोपासकं पश्यामि, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य येनैव कोल्लाकः सन्निवेशो येनैव आनन्दः श्रमणोपासकः येनैव पौषधशाला तेनैव उपागच्छति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, तस्स गोयमस्स—गौतम स्वामी को, बहुजणस्स अंतिए—बहुत लोगों से, एयमढें यह बात, सोच्चा–सुनकर, निसम्म ग्रहण करके, अयमेयारूवे इस प्रकार, अज्झथिए—विचार आया कि, तं गच्छामि णं मैं जाऊँ और, आणंदं समणोवासयं—आनन्द श्रमणोपासक को, पासामि देखू, एवं संपेहेइ इस प्रकार विचार किया, संपेहित्ता विचार करके, जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे—जिस ओर कोल्लाक सन्निवेश था, जेणेव पोसहसाला और जिस ओर पौषधशाला थी, जेणेव आणंदे समणोवासए—जहाँ आनन्द श्रावक था, तेणेव—वहाँ, उवागच्छइ—आए। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 183 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन