________________ टीका प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी के भिक्षार्थ पर्यटन का वर्णन है। पिछले पाठ में प्रतिलेखना से पहले जो तीन क्रियाविशेषण दिए गए थे वे यहां पुनः दिए गए हैं अर्थात् भिक्षा के लिए घूमते समय भी गौतम स्वामी में किसी प्रकार की त्वरा, चपलता या घबराहट नहीं थी। जुगन्तर—युग का अर्थ है गाड़ी का जुवा जो बैलों के कन्धे पर रखा जाता है, उसकी लम्बाई साढ़े तीन हाथ मानी जाती है। साधु के लिए यह विधान है कि वह चलते समय सामने की ओर साढ़े तीन हाथ तक भूमि देखता चले, इधर-उधर या बहुत दूर न देखे / इरियं सोहेमाणे साधु के आचार में सत्रह प्रकार का संयम बताया गया है—पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और चार कषायों का दमन / समिति का अर्थ है—चलने, फिरने, बोलने, भिक्षा करने तथा वस्त्र-पात्र आदि को उठाने, रखने में सावधानी। सर्वप्रथम इर्यासमिति है, इसका अर्थ है—चलने में सावधानी। प्रस्तुत पंक्ति में यह बताया गया है कि गौतम स्वामी इर्यासमिति का शोधन या पालन करते हुए घूमने लगे। वाणिज्य ग्राम में वे उच्च-नीच तथा मध्यम समस्त कुलों में सामुदानीकी भिक्षाचर्या करने लगे। गौतम द्वारा आनन्द की चर्याविषयक समाचार का श्रवणमूलम् तएणं से भगवं गोयमे वाणियग्गामे नयरे, जहा पण्णत्तीए तहा, जाव . भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्तपाणं समं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहित्ता वाणियग्गामाओ पडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे, बहुजण सदं निसामेइ, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४–“एवं खलु देवाणुप्पिया! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाव अणवकंखमाणे विहरइ // 76 // छाया ततः खलु स भगवान् गौतमो वाणिज्यग्रामे नगरे—यथाप्रज्ञप्त्यां यावद् भिक्षाचर्यायै अटन् यथा-पर्याप्तं भक्तपानं सम्यक् प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृह्य वाणिज्यग्रामात् प्रतिनिर्गच्छति, प्रतिनिर्गत्य कोल्लाकस्य सन्निवेशस्याऽदूरसामन्ते व्यतिव्रजन् बहुजनशब्दं निशाम्यति। बहुजनोऽन्यान्यस्मै एवमाख्याति ४-“एवं खलु देवानुप्रियाः! श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी आनन्दो नाम श्रमणोपासकः पौषधशालायामपश्चिम यावत् अनवकांक्षन् विहरति / भावार्थ तए णं तदनन्तर, से—उस, भगवं गोयमे भगवान् गौतम ने, वाणियग्गामे नयरे–वाणिज्यग्राम नाम में, जहा पण्णत्तीए तहा—यथा व्याख्याप्रज्ञप्ति में कल्प है, उसी प्रकार, जाव—यावत्, भिक्खायरियाए भिक्षाचर्या के लिए, अडमाणे भ्रमण करते .. हुए, अहापज्जत्तं यथापर्याप्त, भत्तपाणं–भक्तपान, सम्मं—सम्यक् रूप से, पडिग्गाहेइ–ग्रहण किया, श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 182 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन.