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________________ और भिक्षार्थ वाणिज्यग्राम में घूमने की अनुज्ञा माँगी। भगवान् ने उत्तर दिया—'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह” अर्थात् हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुख हो, प्रतिबद्ध अर्थात् रुकावट मत आने दो / भगवान महावीर का यह उत्तर जैनागमों में सर्वत्र मिलता है, किसी भी यथाप्राप्त उचित कार्य के लिए अनुज्ञा माँगने पर वे कहा करते थे—“जैसा तुम्हें सुख हो, देर मत करो।" यह उत्तर एक ओर इस बात को प्रकट करता है कि वे शुभ कार्य के लिए भी अपनी आज्ञा किसी पर लादते नहीं थे, साथ ही देरी मत करो कहकर उसके उत्साह को बढ़ाते भी थे। मूलम् तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए-समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर परिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ इरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियग्गामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाइं घर समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ // 78 // छाया-ततः खलु भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवता महावीरेणाभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिकाद् दूतिपलाशाच्चैत्याप्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्यात्वरितमचपलमसम्भ्रान्तो युगान्तरपरिलोकनया दृष्ट्या पुरत ईर्यां शोधयन् येनैव वाणिज्यग्रामं नगरं तेनैवोपागच्छति, उपागत्य वाणिज्यग्रामे नगरे उच्चनीयमध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य-भिक्षाचर्याय अटति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, भगवं गोयमे भगवान् गौतम, समणेणं भगवया महावीरेणं श्रमण भगवान् महावीर से, अब्भणुण्णाए समाणे अनुमति मिल जाने पर, समणस्स भगवओ महावीरस्स श्रमण भगवान महावीर के, अंतियाओ—पास से, दूइपलासाओ दूतिपलाश, चेइयाओ चैत्य से, पडिणिक्खमइ निकले, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, अतुरियं—बिना शीघ्रता किए, अचवले–चपलता रहित, असंभंते—असम्भ्रान्त होकर, अर्थात् जुगंतर परिलोयणाए दिट्ठीए युगपरिमाण अवलोकन करने वाली दृष्टि से, पुरओ-आगे की ओर, इरियं ईर्या का, सोहेमाणे शोधन करते हुए, जेणेव वाणियग्गामे नयरे—जहाँ वाणिज्यग्राम नगर था, तेणेव—वहाँ, उवागच्छइ—पहुँचे, उवागच्छित्ता—पहुँचकर, वाणियग्गामे नयरे–वाणिज्य ग्राम नगर में, उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाइं–उत्तम, मध्यम, अधम कुलों में, घरसमुदाणस्स—गृह समुदानी, भिक्खायरियाए भिक्षाचर्या के लिए, अडइ–भ्रमण करने लगे। भावार्थ तदनन्तर भगवान् गौतम भगवान् महावीर की अनुमति मिलने पर दूतिपलाश उद्यान से निकले, चपलता तथा घबराहट के बिना धैर्य एवं शान्ति के साथ साढ़े तीन हाथ तक मार्ग पर दृष्टि डालते हुए वाणिज्यग्राम नगर में आए, और उच्च, नीच एवं मध्यम कुलों में यथाक्रम भिक्षाचर्या के लिए घूमने लगे। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 181 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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