________________ महावन को दहन कर रहे थे। वे आशंसारहित तपस्तेज से उद्दीप्त थे। उनके महातपश्चरण को देखकर पार्श्वस्थ एवं हीनसत्त्व व्यक्ति भयभीत होते थे। वे इन्द्रिय और परीषह शत्रुओं को निर्दयता से दमन कर रहे थे। उन्होंने शरीर-सत्कार और ममत्व को छोड़कर दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत को धारण किया हुआ था। भगवान गौतम सदैव मूल तथा उत्तर गुणों की आराधना में तत्पर रहते थे। उग्र तप एवं भीष्म ब्रह्मचर्य व्रत से योजनों परिमाण क्षेत्र में स्थित वस्तुओं को भस्म करने में समर्थ तेजोलेश्या लब्धि-विशेष उत्पन्न हो गई थी। जिसको उन्होंने अपने अध्यात्म में संक्षिप्त किया हुआ था। ___ चौदह पूर्व के रचियता होने से वे चतुर्दश पूर्वधर थे। सभी चतुर्दश पूर्वधारी भी समग्रश्रुत के धारक नहीं होते, उनमें भी षाड्गुण्य हानि-वृद्धियुक्त तथा अवधिज्ञान के विकल होते हैं। परन्तु गौतम मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्याय चार ज्ञान सम्पन्न थे। सूत्रकर्ता ने ‘सव्वक्खरसन्निवाई' पद दिया है अर्थात् उनका ज्ञान इतना विमल व विशिष्ट था कि संसार में जितनी भी पदानुपूर्वी, वाक्यानुपूर्वी सम्भव हो सकती हैं, एक पद या एक वाक्य मात्र कहने से समस्त विषय को वे सम्यक् प्रकार से जान लेते थे। श्री गौतम ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार सम्पन्न होते हुए भी निरभिमानी और विनय की जीती जागती मूर्ति थे। अतः इन विशेषताओं से युक्त, सचित्त भूमि वर्ज कर उत्कुटुक आसन ऊर्ध्वजानु और शिर कुछ झुकाए भूमिगत दृष्टि, धर्मध्यान को ध्याते हुए न अति दूर न अति समीप, मोक्ष-हेतु संयम और तप से अपनी आत्मा को सुवासित करते हुए भगवान महावीर के चरणों में विचरण कर रहे थे।" गौतम स्वामी का भिक्षा के लिए जानामूलम् तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असंभंते मुहपत्तिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता, भायण-वत्थाइं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायण वत्थाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवाग्गच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी “इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए छट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियग्गामे नयरे उच्चनीय मज्झिमाइं कुलाइं घर समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए।" अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह" || 77 // छाया ततः खलु स भगवान् गौतमः षष्ठक्षपणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानं ध्यायति, तृतीयायां पौरुष्यामत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तो मुखवस्त्रिकां श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 178 | आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन