________________ शब्द से उन गुणों की ओर संकेत किया गया है जहाँ किसी प्रकार की शिथिलता या दुर्बलता के लिए स्थान नहीं होता। घोर-तवस्सी-घोरबंभचेरवासी (धोरतपस्वी-घोरब्रह्मचर्यवासी) इन दोनों विशेषणों में भी यही बताया गया है, कि उनकी तपस्या एवं कठोर ब्रह्मचर्य में किसी प्रकार की शिथिलता या दुर्बलता के लिए अवकाश न था। उन्हें देखकर दूसरे आश्चर्यचकित हो जाते थे। उच्छूट सरीरे—(उत्सृष्टशरीरः) उन्होंने अपने शरीर का परित्याग कर रखा था अर्थात् खाना पीना, चलना-फिरना आदि कार्य करने पर भी ममत्व छोड़ रखा था। उपनिषदों में इसी अर्थ को लेकर जनक को वैदेह कहा गया है। संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से (संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः) यहां तेजो लेश्या का अर्थ है दूसरों को भस्म कर देने की शक्ति / यह उग्र तपस्या के फलस्वरूप अपने आप प्रकट होती है। गौतम स्वामी में यह शक्ति विपुल अर्थात् प्रचुरमात्रा में विद्यमान थी किन्तु उन्होंने इसे अपने ही शरीर में समेट रखा था। प्रचुर शक्ति होने पर भी उन्होंने उसका. कभी प्रयोग नहीं किया। जैन परम्परा में तपोजन्य विभूतियों के लिए गौतम स्वामी को आदर्श माना जाता है। छठें-छट्टेणं (षष्ठषष्ठेन) एक प्रकार की तपस्या है। इसका अर्थ है छः भोजनों का परित्याग, अर्थात् पहले दिन सायंकाल का भोजन न करे, दूसरे दिन तथा तीसरे दिन पूर्ण उपवास रखे। और चौथे दिन प्रातःकालीन भोजन न करे। इस प्रकार इसमें 2 दिन, का पूर्ण उपवास और दो दिन एक एक समय भोजन करना होता है। गौतम स्वामी इस प्रकार का तप निरन्तर कर रहे थे अर्थात् छट्ठ करके पारणा करते थे और फिर छट्ठ कर लेते थे। इस प्रकार दीर्घकाल से उनका तप निरन्तर चल रहा था। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की शान्तिचन्द्रीया वृत्ति में गौतम स्वामी का वर्णन नीचे लिखे अनुसार किया गया है "अनन्तरोक्त विशेषणे हीन संहननोऽपिस्यादत आह 'वज्ज' त्ति वज्रर्षभनाराचसंहननः, तत्र नाराचम् उभयतो मर्कटबन्धः, ऋषभः तदुपरिवेष्टनपट्टः, कीलिका—अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवं रूपं संहननं यस्य स तथा, अयं च निन्द्यवर्णोऽपिस्यादत आह—'कणग' त्ति कनकस्य-सुवर्णस्य पुलको लवस्तस्य यो निकषः कषट्टके रेखारूपः तद्वत् तथा 'पम्ह' त्ति अवयवे समुदायोपचारात् पद्म शब्देन पद्मकेसराण्युच्यन्ते तद्वद् गौर इति, अयं च विशिष्ट चरणरहितोऽपिस्यादत् आह उग्रम् अप्रधृष्यं तपः अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन चिन्तितुमपि न शक्यते तद्विधेन तपसायुक्त इत्यर्थः, तथा दीप्तं जाज्वल्यमान दहन इव कर्मवनगहनदहन समर्थतया ज्वलितं तपोधर्मध्यानादि यस्य स तथा, तथा तप्तं तपो येन स तथा। एवं हि तेन तप्तं तपो येन सर्वाण्यशुभानि कर्माणि श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 176 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन