________________ वर्णन आता है। संस्थान का अर्थ है शरीर की रचना, इसका मुख्य सम्बन्ध बाह्य आकार से है। किसी का शरीर सुडौल होता है अर्थात् हाथ-पांव आदि अंग संतुलित एवं सुरूप होते हैं और किसी का बेडौल / इसी आधार पर 6 संस्थान बताए गए हैं, उनमें समचतुरस्रसंस्थान सर्वश्रेष्ठ है। इसका अर्थ है सिर से पैरों तक समस्त अङ्गों का एक दूसरे के अनुरूप एवं सुन्दर होना। वज्ज-रिसह-नाराय-संघयणे (वज्रर्षभ-नाराच-संहननः) संहनन का अर्थ है—शरीर के अंगों का संगठन / उदाहरण के रूप में किसी का शारीरिक संगठन इतना दुर्बल होता है कि थोड़ा-सा झटका लगने पर अङ्ग अपने स्थान से हट जाते हैं और किसी के इतने मजबूत होते हैं कि किसी भी परिस्थिति में अपना स्थान नहीं छोड़ते। इसी आधार पर 6 संहनन बताए गए हैं और इनमें शारीरिक सन्धियों की बनावट का वर्णन है जो शरीर शास्त्र के इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वज्रऋषभनाराच संहनन सर्वोत्तम माना गया है, और यह तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं अन्य महापुरुषों के होता है। इसमें हड्डियाँ तीन प्रकार से मिली हुई होती हैं। (1) नाराच अर्थात् मर्कट बन्ध अर्थात् एक हड्डी दूसरी हड्डी में कुण्डे की तरह फँसी हुई होती है, (2) ऋषभ अर्थात् उस बन्धन पर वेष्टन पट्ट चढ़ा रहता है, (3) कीलक–अर्थात् पूरे जोड़ में कील लगी रहती है। वज्रऋषभनाराच संहनन में ये बन्ध पूर्ण रूप में होते हैं। इसके विपरीत अन्य संहननों में किसी में आधा कील होता है किसी में होता ही नहीं, किसी में वेष्टनपट्ट नहीं होता और किसी में हड्डियाँ मर्कटबन्ध के स्थान पर यों ही आपस में सटी रहती हैं और अस्थिबन्ध उत्तरोत्तर शिथिल होता जाता है। कणग-गोरे—(कणकपुलकनिकषपद्मगौरः) इसमें भगवान गौतम के शरीर का वर्ण बताया गया है। वे सुवर्णपुलक निकष अर्थात् कसौटी पर खिंची हुई सुवर्ण रेखा तथा पद्म अर्थात् कमल के समान गौर वर्ण के थे। उग्गतवे—(उग्रतपाः) वे उग्र अर्थात् कठोर तपस्वी थे। घोरतवे (घोरं-तपाः) वे घोरतपस्वी थे, घोर का अर्थ है कठोर, उन्होंने तपस्या करते समय कभी अपने शरीर के प्रति ममता या दुर्बलता नहीं दिखाई, दूसरों के लिए जो अत्यंत दयालु थे वे ही अपने लिए कठोर थे। महातवे—(महा-तपाः) वे महा तपस्वी थे। उपरोक्त तीनों विशेषण इस बात को प्रकट करते हैं कि जैन परम्परा में बाह्य एवं आभ्यन्तर सभी प्रकार के तपों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उराले—(उदारः) वे उदार अर्थात् मनस्वी एवं विशाल हृदय थे। प्रत्येक बात में उनका दृष्टिकोण उच्चतम लक्ष्य की ओर रहता था। घोरगुणे—(घोरगुणः) वे तपस्या, ज्ञान, कठोर चारित्र आदि विशिष्ट गुणों के धारक थे। घोर श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 175 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन