________________ घोरतवे—घोर तपस्वी, महातवे—महा तपस्वी, उराले—उदार, घोरगुणे—महान गुणों वाले, घोरतवस्सी–घोर तपस्वी, घोरबंभचेरवासी—उग्र ब्रह्मचर्य व्रत के धारक, उच्छूढसरीरे-शारीरिक मोह से रहित अथवा शरीर त्यागी, संखित्तविउलतेउलेस्से तेजोलेश्या की विशाल शक्ति को समेटे हुए, छठें छठेणं-. षष्ठ भक्त अर्थात् बेले-बेले के, अणिक्खित्तेणं निरंतर, तवोकम्मेणं-तपानुष्ठान, संजमेणं-संयम, तवसा तथा अनशनादि अन्य तपश्चरण के द्वारा, अप्पाणं भावेमाणे-अपनी आत्मा को संस्कारित करते हुए, विहरइ–विचर रहे थे। भावार्थ—उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार विचर रहे थे, वे सात हाथ ऊँचे थे, सम-चतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन वाले तथा सुवर्ण पुलक निकष और पद्म के समान गौरवर्ण वाले थे। उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, घोरतपस्वी, महातपस्वी, उदार, महा गुणवान, उत्कृष्ट तपोधन, उग्र ब्रह्मचारी, शरीर से निर्मल और संक्षिप्त की हुई विपुल तेजोलेश्या के धारक थे। निरन्तर बेले तथा अन्य प्रकार के तपानुष्ठान द्वारा आत्मविकास कर रहे थे। टीका प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी का वर्णन है। यह बताया जा चुका है कि प्रत्येक तीर्थंकर के कुछ मुख्य शिष्य होते हैं, जिन्हें गणधर कहा जाता है। भगवान महावीर के 11 गणधर थे, उनमें इन्द्रभूति प्रथम एवं ज्येष्ठ थे। वे महातपस्वी तथा विनय-सम्पन्न थे। प्रस्तुत पाठ में दिया गया प्रत्येक विशेषण उनके महत्वपूर्ण गुणों को प्रकट करता है। . . ___ इन्द्रभूति—गौतम स्वामी का वैयक्तिक नाम इन्द्रभूति था, गौतम उनका गोत्र था। व्यवहार में अधिकतर गोत्र का प्रयोग होने से उनका नाम ही गौतम प्रसिद्ध हो गया। भगवान् महावीर भी उन्हें 'गोयमा' अर्थात् 'हे गौतम' शब्द द्वारा सम्बोधित करते थे। अणगारे इस शब्द का अर्थ है साधु एवं मुनि / जैन धर्म में साधना के 2 रूप बताए गए हैं। (1) श्रावक के रूप में जहाँ गृह-सम्पत्ति तथा सूक्ष्म हिंसादि का त्याग नहीं होता है। (2) साधु का इनका पूर्णतया त्याग होता है। श्रावक को सागार कहा जाता है। आगार के 2 अर्थ हैं—(१) घर या (2) व्रत धारण में अमुक छूट। इन दोनों का परित्याग होने के कारण मुनि को अनगार कहा जाता सत्तुस्सेहे—(सप्तोत्सेधः) इसमें गौतम स्वामी की शारीरिक सम्पत्ति का वर्णन है। उत्सेध का अर्थ है—ऊँचाई। वे सात हाथ ऊँचे थे। ____समचउरंस-संठाण-संठिए (समचतुरस्रसंस्थान संस्थितः) जैन धर्म में शरीर की रचना नामकर्म के उदय से मानी जाती है। नामकर्म की अठानवें प्रकृतियाँ हैं, उन्हीं में 6 संस्थान तथा 6 संहननों का श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 174 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन