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________________ अवधिज्ञानावरण—जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख एवं अनन्त वीर्य अर्थात् शक्ति का पुञ्ज है, उसका यह स्वरूप कर्मबन्ध के कारण दबा हुआ है, इसीलिए वह संसार में भटक रहा है और सुख-दुःख भोग रहा है। कर्म आठ हैं, उनमें से 4 आत्मा के उपरोक्त गुणों को दबाकर रखते हैं, शेष 4 विविध योनियों में विविध प्रकार की शारीरिक एवं सामाजिक स्थिति, न्यूनाधिक आयु एवं बाह्य सुख-दुख के प्रति कारण हैं। प्रथम चार में ज्ञानावरण—ज्ञान पर पर्दा डालता है, दर्शनावरण दर्शन पर, मोहनीय-सुख का घात करता है और अन्तराय शक्ति का / . ज्ञानावरण के 5 भेद हैं—(१) मतिज्ञानावरण (2) श्रुत ज्ञानावरण (3) अवधि ज्ञानावरण (4) मनःपर्यय ज्ञानावरण (5) केवल ज्ञानावरण / अवधिज्ञान दूर-सूक्ष्म विषयक उस अतीन्द्रिय ज्ञान को कहते हैं जो रूप वाले द्रव्यों तक सीमित है। आनन्द श्रावक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया और वह निश्चित सीमा तक दूरवर्ती पदार्थों को देखने तथा जानने लगा। लवण समुद्र जैन भूगोल के अनुसार मनुष्य क्षेत्र अढाई द्वीपों तक फैला हुआ है। मध्य में जम्बूद्वीप है जो एक लाख योजन लम्बा, एक लाख योजन चौड़ा वृत्ताकार है। उसके चारों और लवण समुद्र है। लवण समुद्र के चारों और धातकी खण्ड नामक द्वीप है। उस द्वीप को कालोदधि समुद्र घेरे हुए है। उसके चारों ओर पुष्करद्वीप है। इस द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत हैं। मनुष्यों की बस्ती यहाँ तक ही है। वर्षधर पर्वत—जम्बूद्वीप के बीच मेरु पर्वत है। मेरु से दक्षिण की ओर भरत आदि 6 खण्ड हैं। वर्षधर पर्वत इन खण्डों का विभाजन करता है। एतत्सम्बन्धी विस्तारार्थ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों को देखना चाहिए। सौधर्म देवलोक ऊर्ध्व लोक में प्रथम देवलोक का नाम सौधर्म है। रन प्रभा पृथ्वी के अधोभाग में सात नरक हैं। प्रथम नरक का नाम रत्नप्रभा है। उस नरक में भी अनेक प्रकार के नारकीय जीव रहते हैं। लोलुपाच्युत नरक भी इसी पृथ्वी का स्थान विशेष है, जहाँ नारकीय जीवों की आयु चौरासी हज़ार वर्ष मानी जाती है। - भगवान महावीर का पुनरागमनमूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया जाव पडिगया // 75 // छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः। परिषन्निर्गता यावत्प्रतिगता। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 172 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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