________________ तयावरणिजाणं कम्माणं अवधिज्ञानावरण कर्म के, खओवसमेणं–क्षयोपशम से, ओहिनाणे—अवधि ज्ञान, समुप्पन्ने उत्पन्न हो गया, उसके द्वारा, पुरथिमेणं पूर्व की ओर, लवण समुद्दे लवण समुद्र में, पंच जोयण सयाइं—पाँच सौ योजन, खेत्तं क्षेत्र को, जाणइ पासइ—जानने और देखने लगा, एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं—इसी प्रकार दक्षिण और पश्चिम में भी पाँच सौ योजन तक जानने और देखने लगा। उत्तरेणं-उत्तर की ओर, चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वयं क्षुल्लक हिमवान-वर्षधर पर्वत को, जाणइ पासइ –जानने देखने लगा, उड्ढं—ऊर्ध्व लोक में, सोहम्मं कप्प जावं—सोधर्म कल्प तक, जाणइ पासइ-जानने देखने लगा और, अहे—अधोलक में, इमीसे—इस, रयणप्पभाए रत्न प्रभा, पुढवीए—पृथ्वी के, चउरासीइवाससहस्सट्ठिइयं चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले, लोलुयच्चुयं नरयं—लोलुपाच्युत नामक नरक, जाव तक, जाणइ—जानने तथा पासइ—देखने लगा। भावार्थ इस प्रकार धर्म चिन्तन करते हुए आनन्द को एक दिन शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम एवं विशुद्ध लेश्या के कारण अवधिज्ञानावरंण कर्म का क्षयोपशम हो गया और अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप वह पूर्व और पश्चिम की तरफ लवण समुद्र में पाँच सौ योजन की दूरी तक जानने और देखने लगा, उत्तर दिशा की तरफ क्षुल्लहिमवान वर्षधर पर्वत को, ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक और अधोलोक में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुपाच्युत नरक तक जानने और देखने लगा। .. टीका इस सूत्र में आनन्द के अवधिज्ञान का वर्णन है। उसका क्रम नीचे लिखे अनुसार बताया गया है। तपस्या, धर्मचिन्तन आदि के कारण उसके अध्यवसाय शुद्ध हुए। तदनन्तर परिणाम शुद्ध हुए। परिणाम शुद्ध होने पर लेश्याएँ शुद्ध हुईं। लेश्याएँ शुद्ध होने पर अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हुआ और उससे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। टीकाकार ने अध्यवसाय का अर्थ किया है—प्रथम मनोभाव अर्थात् कार्यविशेष या अनुष्ठान के लिए दृढ़संकल्प। उसके लिए परिश्रम करने का निश्चय और मार्ग में आने वाले संकट एवं विघ्न बाधाओं से विचलित न होने की प्रतिज्ञा / परिणाम का अर्थ है—अध्यवसाय के पश्चात् उत्तरोत्तर बढ़ती हुई विशुद्धि एवं उत्साह के फलस्वरूप उठने वाले मनोभाव / लेश्या का अर्थ है अन्तिम मनोभाव जो आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति को प्रकट करते हैं। 'जैन आगमों में 6 लेश्याएं बताई गई हैं—(१) कृष्ण (2) नील (3) कापोत (4) तैजस् (5) पद्म और (6) शुक्ल / कृष्ण लेश्या क्रूरतम विचारों को प्रकट करती है, इसके पश्चात् नील आदि लेश्याओं में विचार उत्तरोत्तर शुद्ध होते जाते हैं। अन्तिम लेश्या में वे पूर्णतया निर्मल हो जाते हैं। विचार ज्यों-ज्यों निर्मल होते हैं, साधक उत्तरोत्तर लेश्याओं को प्राप्त करता जाता है। इनका विस्तृत वर्णन पण्णवणा सूत्र के सत्तरहवें पद, और उत्तराध्ययन तथा चतुर्थ कर्मग्रन्थ में दिया गया है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 171 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन