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________________ चेष्टाएँ अथवा हल-चल / बल—शारीरिक शक्ति / वीर्य-आत्म तेज या उत्साह शक्ति जो किसी कार्य को करने की प्रेरणा देती है। - “विशेषेण इर्यते प्रेर्यते अनेन इति वीर्यम्”। पुरुषकार—पुरषार्थ या उद्यम / पराक्रम—इष्ट साधन के लिए परिश्रम / श्रद्धा विशुद्ध चित्तपरिणति के कारण होने वाला दृढ़ विश्वास / धृति-धैर्य, भय, शोक, दुःख, संकट आदि से विचलित न होना अर्थात् मन में किसी प्रकार का क्षोभ या उद्वेग न आना। संवेग आत्मा तथा अनात्मा सम्बन्धी विवेक के कारण बाह्य वस्तुओं से होने वाली विरक्ति / शास्त्र में स्थान-स्थान पर धर्म जागरिका के लिए पूर्व रात्रि का अपर भाग विशेष रूप से बताया गया है, इसका अर्थ है—मध्यम रात्रि। उस समय दुनिया का कोलाहल बन्द हो जाता है और मानसिक वृत्तियाँ शान्त होती हैं। योग परम्परा में भी मन की एकाग्रता का अभ्यास करने के लिए इस समय को प्रशस्त माना है। आनन्द ने भगवान महावीर स्वामी के रहते ही अन्तिम व्रत ले लेना उचित समझा। धर्मानुष्ठान के लिए गुरु या मार्ग-दर्शक का उपस्थित रहना अत्यन्त उपयोगी है इससे उत्साह बना रहता है और किसी प्रकार का संदेह, द्विविधा, अड़चन आदि उत्पन्न होने पर उनका निवारण होता रहता है। आनन्द को अवधिज्ञान का होना मूलम् तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने। पुरथिमेणं लवण समुद्दे पंच-जोयण सयाई खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं य, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासधर पव्वयं जाणइ पासइ, उड्ढं जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सट्ठिइयं जाणइ पासइ / / 74 // छाया ततः खलु तस्याऽऽनन्दस्य श्रमणोपासकस्यान्यदा कदाचित् शुभेनाध्यवसायेन, शुभेनपरिणामेन, लेश्याभिर्विशुद्ध्यमानाभिस्तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेनावधिज्ञानं समुत्पन्नम् / पौरस्त्ये खलु लवणसमुद्रे पञ्चयोजन-शतानि क्षेत्रं जानाति पश्यति / एवं दक्षिणात्ये पश्चिमात्ये च, उत्तरे खलु यावत् क्षुल्लहिमवन्तं वर्षधरपर्वतं जानाति पश्यति, ऊर्ध्वं यावत् सौधर्मकल्पं जानाति पश्यति, अधो यावद् अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या लोलुपाच्युतं नरकं चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिकं जानाति पश्यति। शब्दार्थ तए णं इसके अनन्तर, आणंदस्स समणोवासगस्स—आनन्द श्रमणोपासक को, अन्नया कयाइ–अन्यदा कदाचित्, सुभेणं शुभ, अज्झवसाणेणं अध्यवसाय तथा, सुभेणं परिणामेणं शुभ परिणाम के कारण, विसुज्झमाणीहिं लेसाहिं—विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से, __ श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 170 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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