________________ संलेखना को स्वीकार करके, जाव—यावत्, कालं अणवकंखमाणे—काल की कांक्षा न करते हुए, विहरइ विचरने लगा। __ भावार्थ तदनन्तर एक दिन आनन्द श्रावक को पूर्वरात्रि के अपर भाग में धर्म चिन्तन करते हुए यह विचार आया—यद्यपि मैं उग्र तपश्चरण के कारण कृश हो गया हूँ। नसें दीखने लगी हैं, फिर भी अभी तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग विद्यमान हैं। अतः जब तक मुझ में उत्थानादि हैं और जब तक मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर जिनसुहस्ती विचर रहे हैं। मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि अन्तिम मरणान्तिक संलेखना अङ्गीकार कर लूँ। भोजन, पानी आदि का परित्याग कर दूँ और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए शान्त चित्त से अन्तिम काल व्यतीत करूँ। टीका प्रस्तुत सूत्र में आनन्द द्वारा अन्तिम संलेखनाव्रत अङ्गीकार करने का वर्णन है, इसमें कई बातें महत्वपूर्ण हैं। ___ संलेखना जीवन का अन्तिम व्रत है, और यह जैन साधक की जीवन-दृष्टि को प्रकट करता है। पहले बताया जा चुका है कि जैन धर्म में जीवन एक साधन है, साध्य नहीं। वह अपने आप में लक्ष्य नहीं है। वह आत्म-विकास का साधन मात्र है। साधन को तभी तक अपनाना चाहिए, जब तक वह लक्ष्य सिद्धि में सहायक है। इसके विपरीत यदि वह बाधाएँ उपस्थित करने लगे तो साधन को उसे छोड़ देना ही उचित है। शरीर या जीवन को भी तभी तक रखना चाहिए, जब तक वह आत्म-विकास में सहायक है। रोग, अशक्ति अथवा अन्य कारणों से जब यह प्रतीत होने लगे कि अब वह विकास के स्थान पर पतन की ओर ले जाएगा, मन में उत्साह न रहे, चिन्ताएँ सताने लगें और भावनाएं कलुषित होने लगें, तो ऐसी स्थिति आने से पहले ही शरीर का परित्याग कर देना उचित है। आनन्द श्रमणोपासक ने भी यही निश्चय किया। उसने सोचा—जब तक मुझ में बल, वीर्य, पराक्रम, उत्साह आदि विद्यमान हैं और मेरे धर्मोपदेशक, मेरे धर्माचार्य भगवान महावीर विचर रहे हैं, मुझे जीवन का अन्तिम व्रत ले लेना चाहिए। यह निश्चय कर लेने पर प्रातः होते ही उसने संलेखना व्रत ले लिया, आमरण अशन, पान आदि आहार का त्याग कर दिया और एकमात्र आत्म चिन्तन में लीन हो गया। सूत्रकार ने यहाँ बताया है कि जिस प्रकार उसने जीने की आकांक्षा छोड़ दी उसी प्रकार मरने की आकांक्षा भी नहीं की अर्थात् उसने यह भी नहीं चाहा कि भूख-प्यासादि के कारण कष्ट हो रहा है अतः मृत्यु शीघ्र ही आ जाए। जीवन, मरण, यश, कीर्ति ऐहिक भोग तथा पारलौकिक सुखादि सब इच्छाओं से निवृत्त होकर एकमात्र आत्मचिन्तन में लीन होकर वह समय व्यतीत करने लगा। - प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द ध्यान देने योग्य हैं, उत्थान—उठना, बैठना, गमनागमन आदि शारीरिक . श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 166 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन