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________________ धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए 4 “एवं खलु अहं इमेणं जाव धमणिसंतए जाए। तं अत्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमे सद्धा धिइ संवेगे। तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे सद्धा धिइ संवेगे, जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ता मे सेयं कल्लं जाव जलंते अपच्छिममारणंतियसंलेहणा झूसणाझसियस्स, भत्तपाणपडियाइक्खियस्स कालं अणवकङ्खमाणस्स विहरित्तए।" एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं पाउ जाव अपच्छिममारणंतिय जाव कालं अणवकङ्खमाणे विहरइ // 73 // छाया–ततः खलु तस्याऽऽनन्दस्य श्रमणोपासकस्यान्यदा कदाचित् पूर्वरात्रौ यावद्धर्मजागरिकां जाग्रतोऽयमाध्यात्मिकः४ “एवं खल्वहमनेन यावद्धमनिसन्ततो जातः। तदस्ति तावन्मे उत्थानं कर्म, बलं, वीर्यं, पुरुषकारपराक्रमः श्रद्धा, धृतिः, संवेगः, तद्यावत्तावन्मेऽस्ति उत्थानं श्रद्धा धृति संवेगः, यावच्च मे धर्माचार्यो धर्मोपदेशकः श्रमणो भगवान् महावीरो जिनः सुहस्ती विहरति, तावन्मे श्रेयः कल्यं यावज्ज्वलति अपश्चिममारणान्तिक संलेखना जोषणा जूषितस्य भक्तपानप्रत्याख्यातस्य कालमनवकांक्षतो विहर्तुम्, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कल्यं प्रादुर्यावदपश्चिममारणान्तिक यावत्कालमनवकांक्षन् विहरति। शब्दार्थ-तए णं—इसके अनन्तर, तस्स—उस, आणंदस्स समणोवासगस्स—आनन्द श्रमणोपासक को, अन्नया कयाइ–एक दिन, पुव्वरत्ता०—पूर्वरात्रि के अपर भाग में, जाव—यावत्, धम्मजागरियं जागरमाणस्स—धर्म जागरण करते 2, अयं यह, अज्झथिए ४–संकल्प उत्पन्न हुआ कि–एवं खलु अहं—मैं निश्चय ही, इमेणं इस तपस्या से शुष्क, 'जाव यावत् एवं, मणिसंतए-धमनियों से व्याप्त, जाए हो गया हूँ, तं अत्थि ता तो भी, मे मझ में अभी, उठाणे—उत्थान, कम्मे–कर्म, बले—बल, वीरिए वीर्य, पुरिसक्कार परक्कमे—पुरुषकार पराक्रम, सद्धा धिइ संवेगे श्रद्धा, धृति और संवेग, अस्थि हैं, तं जाव ता—जब तक, मे—मुझ में, उट्ठाणे—उत्थान, सद्धाधिइसंवेगे, यावत्, श्रद्धा, धृति, संवेग; अस्थि हैं, जाव य—और जब तक, मे मेरे, धम्मायरिए धर्माचार्य, धम्मोवएसए—धर्मोपदेशक, समणे भगवं महावीरे—श्राण भगवान महावीर, जिणे-जिन, सुहत्थी सुहस्ती, विहरइ–विचरते हैं, ताव ता तब तक, कल्लं—कल प्रातःकाल, जाव—यावत, जलंते—सूर्य उदय होने पर, अपच्छिममारणंतियसंलेहणा झूसणा झूसियस्स—अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना को अङ्गीकार करके, भत्तपाण पडियाइक्खियस्सभक्तपान का प्रत्याख्यान करके, कालं अणवकंखमाणस्स—मृत्यु की कांक्षा न करते हुए, मे मेरे को, विहरित्तए विचरना, सेयं श्रेय है। एवं इस प्रकार, संपेहेइ विचार किया, संपेहित्ता विचार करके, कल्लं पाउ—दूसरे दिन प्रातःकाल, जाव—यावत्, अपच्छिममारणंतिय अपश्चिम मारणान्तिक | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 168 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन |
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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