________________ ___ अर्थात् सम्यक्त्व, अणुव्रत तथा गुणव्रतों का धारक अष्टमी या चतुर्दशी के दिन-रात भर कायोत्सर्ग करता है। अथवा सांसारिक प्रवृत्तियों को त्यागकर सारी रात आत्मचिन्तन में व्यतीत करता है, इसी को कायोत्सर्ग प्रतिमा कहते हैं। यह प्रतिमा कम से कम एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लेकर अधिक से अधिक पांच मास तक की होती है। इस प्रतिमा में रात्रि भोजन का परित्याग तथा दिन में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया जाता है और रात्रि का परिमाण किया जाता है। धोती की लांग नहीं लगाई जाती। (6) ब्रह्मचर्य प्रतिमा पूर्वोक्त पांच प्रतिमाओं के आराधन के पश्चात् छठी पडिमा में सर्वधर्म रुचि होती है। वह पूर्वोक्त सर्व व्रतों का सम्यक् रूप से पालन करता है और ब्रह्मचर्य प्रतिमा को स्वीकार करता है। इसमें पूर्ण ब्रह्मचर्य का विधान है। स्त्रियों से अनावश्यक वार्तालाप, उनके शृङ्गार तथा चेष्टाओं को देखना आदि वर्जित है, किन्तु वह सचित्त आहार का त्याग नहीं करता अर्थात् औषध सेवन के समय या अन्य किसी कारण वह सचित्त को भी सेवन कर लेता है। इसकी अवधि छह मास है। दिगम्बर परम्परा में इसे रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा या दिवामैथुन त्याग प्रतिमा कहते हैं। पुव्वोदिय गुणजुत्तो विसेसओ, विजिय मोहणिज्जो य / वज्जइ अबंभमेगंतओ य, राई पि थिर चित्तो || सिङ्गारकहा विरओ इत्थीए समं रहम्मि नो ठाइ / चयइ य अइप्पसङ्ग, तहा विभूसं च उक्कोसं // एवं जा छम्मासा एसोऽहिगओ उ इयरहा दिलैं | जावज्जीवं पि इमं, वज्जइ एयम्मि लोगम्मि // पूर्वोदित गुणयुक्तो विशेषतो विजितमोहनीयश्च / वर्जयत्यब्रह्मैकान्ततस्तु रात्रावपि स्थिरचित्तः // शृङ्गारकथाविरतः स्त्रिया समं रहसि न तिष्ठति / त्यजति चाति प्रसङ्गं तथा विभूषां चोत्कृष्टाम् // एवं यावत् षण्मासान् एषोऽधिकृतस्तु इतरथा दृष्टम् / यावज्जीवमपीदं वर्जयति एतस्मिन् लोके // अर्थात् पूर्वोक्त गुणों से युक्त जो व्यक्ति मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त कर लेता है, रात्रि को भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है तथा स्त्रियों से संलापादि नहीं करता। शृङ्गारयुक्त वेषभूषा नहीं करता। इस प्रकार 6 मास तक रहना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। इस प्रतिमा की अवधि कम से कम एक, श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 164 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन