________________ (1) दर्शन प्रतिमा दर्शन का अर्थ है श्रद्धा या दृष्टि। आत्मविकास के लिए सर्वप्रथम दृष्टि का ठीक होना आवश्यक है। दर्शनप्रतिमा का अर्थ है—वीतराग देव, पांच महाव्रतधारी गुरु तथा वीतराग के बताए हुए मार्ग पर दृढ़ विश्वास / उन्हीं का चिन्तन, मनन एवं अनुष्ठान / शास्त्रों में इसका स्वरूप नीचे लिखे अनुसार बताया गया है सङ्कादि सल्ल विरहिय सम्मइंसणजुओ उ जो जन्तू | सेसगुण विप्पमुक्को एसा खलु होई पढमा उ || शङ्कादि शल्यविरहित सम्यग्दर्शनयुक्तस्तु यो जन्तुः / शेषगुण विप्रमुक्तः एषा खलु भवति प्रथमा | अर्थात् चारित्रादि शेष गुण न होने पर भी सम्यग्दर्शन का शंका, कांक्षा, आदि दोषों से रहित - होकर सम्यक्तया पालन करना पहली अर्थात् दर्शन प्रतिमा है। इस प्रतिमा में श्रमणोपासक 'रायाभियोगेण' आदि आगारों रहित सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है अर्थात् क्रियावादी, अक्रियावादी, नास्तिक आदि वादियों के मतों को भली प्रकार जानकर विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करता है। इस पडिमा का आराधन एक मास तक किया जाता है। (2) व्रत प्रतिमा दर्शन के पश्चात् दूसरी व्रत प्रतिमा है, सम्यग्दृष्टि जीव जब अणुव्रतों का निर्दोष पालन करता है तो उसे व्रत प्रतिमा कहा जाता है। पहली प्रतिमा का आराधक पुरुष शुद्ध सम्यक्त्व वाला होता है। दूसरी में वह चारित्र-शुद्धि की ओर झुककर कर्मक्षय का प्रयत्न करता हैं। वह पाँच अणुव्रत और तीन गुण व्रतों को धारण करता है। चार शिक्षा व्रतों को भी अङ्गीकार करता है। किन्तु सामायिक और देशावकाशिक व्रतों का यथासमय सम्यक् पालन नहीं करता। इस पडिमा का समय दो मास है। दंसणपडिमा जुत्तो पालेन्तोऽणुव्वए निरइयारे / अणुकम्पाइगुण जुओ जीवो इह होइ वयपडिमा | दर्शनप्रतिमायुक्त, पालयन् अणुव्रतानि निरतिचाराणि | अनुकम्पादिगुणयुतो जीव इह भवति व्रतप्रतिमा // (3) सामायिक प्रतिमा सम्यग्दर्शन और अणुव्रत स्वीकार करने के पश्चात् प्रतिदिन तीन बार सामायिक करना सामायिक प्रतिमा है। तीसरी पडिमा में सर्वधर्म विषयक रुचि रहती है। वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास धारण करता है। सामायिक और देशावकाशिक की आराधना भी उचित रीति से करता है, किन्तु चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा आदि पर्व दिनों में पौषधोपवास व्रत की सम्यग् आराधना नहीं कर सकता। इस पडिमा का समय तीम मास का है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 162 | आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन,