________________ शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से—वह, आणंदे समणोवासए—आनन्द श्रमणोपासक, उवासगपडिमाओ-उपासक प्रतिमाओं को, उवसंपज्जित्ताणं स्वीकार करके, विहरइ–विचरने लगा, पढमं—प्रथम, उवासग पडिमं—उपासक प्रतिमा को, अहासुत्तं सूत्र के अनुसार, अहाकप्पं—कल्प के अनुसार, अहामग्गं—मार्ग के अनुसार, अहातच्चं यथार्थ तत्त्व के अनुसार, सम्मं—सम्यक् रूप में, काएणं—काया के द्वारा, फासेइ–स्वीकार किया, पालेइ पालन किया, सोहेइ निरतिचार शोधन किया, तीरेइ-आद्यन्त अच्छी तरह पूर्ण किया, किट्टेइ–कीर्तन किया, आराहेइ–अंगीकृत प्रतिमा का अभिनन्दन किया। भावार्थ तदनन्तर आनन्द श्रावक उपासकप्रतिमाएं स्वीकार करके विचरने लगा। उसने प्रथम उपासक-प्रतिमा को यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातथ्य शरीर के द्वारा स्वीकार किया, पालन किया, शोधन किया, कीर्तन किया तथा आराधन किया। टीकासाधुओं की उपासना सेवा करने वाला उपासक कहलाता है। अभिग्रह विशेष को पडिमा प्रतिज्ञा कहते हैं। उपासक श्रावक का अभिग्रहविशेष प्रतिज्ञा, उवासक-पडिमा कहलाती है। . मूलम् तए णं से आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासग-पडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचमं, छठें, सत्तमं, अट्ठमं, नवम, दसमं, एक्कारसमं / जाव आराहेइ // 71 // छाया ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासको द्वितीयामुपासकप्रतिमाम, एवं तृतीयां, चतुर्थी, पच्चमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, यावदाराधयति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से—उस, आणंदे समणोवासए—आनन्द श्रावक ने, दोच्चं उवासगपडिमं दूसरी . उपासक प्रतिमा, एवं इसी प्रकार, तच्चं तीसरी, चउत्थं चौथी, पंचमं—पाँचवी, छठें छट्ठी—सत्तमं सातवीं, अट्ठमं—आठवीं, नवमं—नवीं, दसमं—दसवीं, एक्कारसमं—ग्यारहवीं का, जाव यावत्, आराहेइ-आराधन किया। . भावार्थ तदनन्तर आनन्द श्रावक ने दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं और ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का आराधन किया। टीका–उपरोक्त दो सूत्रों में आनन्द द्वारा प्रतिमा ग्रहण का वर्णन है। प्रतिमा एक प्रकार का व्रत या अभिग्रह है, जहां आत्मशुद्धि के लिए धार्मिक क्रियाओं का विशेष रूप से अनुष्ठान किया जाता है, प्रत्येक प्रतिमा में किसी एक क्रिया को लक्ष्य में रखकर सारा समय उसी के चिन्तन, मनन, अनुष्ठान एवं आत्मसात् करने में लगाया जाता है। प्रतिमाएँ ग्यारह हैं। उनका स्वरूप नीचे लिखे अनुसार है श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 161 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन