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________________ दब्म-संथारोवगए— डाभ के बिछौने पर बैठकर, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान महावीर के, अंतिए—पास की, धम्मपण्णति-धर्मप्रज्ञप्ति की, उवसंपज्जित्ताणं स्वीकार करके, विहरइ रहने लगा। __ भावार्थ तदनन्तर आनन्द श्रावक ने बड़े पुत्र तथा मित्र ज्ञातिजन की अनुमति ली और अपने घर से निकला, वाणिज्यग्राम नगर के बीच होता हुआ, जहाँ कोल्लाक सन्निवेश था, जहाँ ज्ञातकुल तथा ज्ञातकुल की पौषधशाला थी वहाँ पहुँचा। पौषधशाला का परिमार्जन करके उच्चार प्रस्रवण (शौच तथा लघुनीत) भूमि की प्रतिलेखना की। तत्पश्चात् दर्भासन पर बैठकर पौषध अङ्गीकार करके भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्मदर्शन का अनुष्ठान करने लगा। टीका-पुत्र को घर का भार सौंपकर तथा जाति-बन्धुओं से विदा लेकर आनन्द श्रमणोपासक कोल्लाक सन्निवेश में पहुँचा और पौषधशाला में पौषधव्रत स्वीकार करके धर्मचिन्तन में लीन हो गया। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि वह भगवान् महावीर द्वारा आदिष्ट धर्मप्रज्ञप्ति का. आराधन करने लगा, यही धर्म प्रज्ञप्ति मोक्ष मार्ग के रूप में प्रतिपादित की गई है जिसके तीन अंग हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र / उत्तराध्ययन सूत्र में चारित्र के साथ तप का भी उल्लेख है वास्तव में देखा जाय तो वह चारित्र का ही अंग है। पाप-जनक प्रवृत्तियों के निरोध रूप. चारित्र को शास्त्रों में संयम शब्द से निर्दिष्ट किया गया है और पूर्व संचित कर्मों एवं वैकारिक संस्कारों को दूर . करने के लिए जिस चारित्र का अनुष्ठान किया जाता है उसे तप कहते हैं। कर्म निरोध की दृष्टि से संयम का दूसरा नाम संवर है। तप संवररूप भी है, और निर्जरारूप भी। कर्म निरोध की दृष्टि से वह संवर और कर्मक्षय की दृष्टि से वही निर्जरा भी है। प्रतीत होता है कोल्लाक सन्निवेश में आनन्द का जातिवर्ग रहता था, वह उनके घर से आहार आदि लेकर जीवनयापन करने लगा। श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा में इसी का विधान किया गया है, अर्थात् कुछ समय प्रतिमाधारी को स्वजातीयवर्ग के घरों से भिक्षा लेकर निर्वाह करना चाहिए। . आनन्द द्वारा प्रतिमा ग्रहण-. मूलम् तए णं से आणंदे समणोवासए उवासग-पडिमाओ उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। पढम उवासग पडिमं अहा-सुत्तं अहा-कप्पं अहा-मग्गं अहा-तच्चं सम्मं काएणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, किट्टेइ, आराहेइ // 70 // छाया ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासक उपासक-प्रतिमा उपसंपद्य विहरति, प्रथमामुपासकप्रतिमां यथासूत्रं, यथाकल्पं, यथामार्ग, यथातत्त्वं सम्यक् कायेन स्पृशति, पालयति, शोधयति, तीरयति, कीर्तयति, आराधयति / | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 160 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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