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________________ जीवनचर्या से अपना हाथ खींच लिया। दूसरी बात है अब मेरे लिए अशन-पान आदि भोजन सामग्री न तैयार करना और न मेरे पास लाना। इससे प्रतीत होता है कि आनन्द अन्तिम समय में निरारम्भ भोजनचर्या पर रहने लगा था, यद्यपि उसने मुनिव्रत नहीं लिया परन्तु उसके निकट अवश्य पहुँच गया था। आनन्द का निष्क्रमणमूलम् तए णं से आणंदे समणोवासए जेट्ठ-पुत्तं मित्त-णाई आपुच्छइ, 2 ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, 2 त्ता वाणियग्गामं नयरं मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, 2 त्ता जेणेव कोल्लाए-सन्निवेसे, जेणेव नायकुले जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता पोसहसालं पमज्जइ, 2 त्ता उच्चार-पासवण-भूमि पडिलेहेइ, 2 त्ता दब्भ-संथारयं संथरइ, संथरित्ता दब्भ-संथारयं दुरुहइ, 2 ता पोसहसालाए पोसहिए दब्भ-संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ // 66 // छाया ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासको ज्येष्ठपुत्रं मित्रज्ञातिमापृच्छति, आपृच्छ्य स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य वाणिज्यग्राम नगरं मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य येनैव कोल्लाकः सन्निवेशः, येनैव ज्ञातकुलं, येनैव पौषधशाला तेनैवोपागच्छति, उपागत्य पौषधशालां प्रमार्जयति, प्रमार्योच्चारप्रस्रवण भूमिं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारकं संस्तृणाति, संस्तीर्य दर्भसंस्तारकं दूरोहति, दूरुह्य पौषधशालायां पौषधिको दर्भसंस्तारोपगतः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकीं धर्मप्रज्ञप्तिमुपसंपद्य विहरति। शब्दार्थ तए णं इसके अनन्तर, से—उस, आणंदे समणोवासए—आनन्द श्रमणोपासक ने, जेट्टपुत्तं मित्तणाई—ज्येष्ठ पुत्र तथा मित्रों एवं ज्ञातिजनों को, आपुच्छइ—पूछा, आपुच्छित्तापूछकर, सयाओ गिहाओ—वह अपने घर से, पडिणिक्खमइ निकला, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, वाणियग्गाम नयरं वाणिज्यग्राम नगर के, मज्झं मज्झेणं बीचोंबीच, निग्गच्छइ निकला, निग्गच्छित्ता निकलकर, जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे—जहाँ कोल्लाक सन्निवेश था, जेणेव नायकुले—जहाँ ज्ञात कुल था, जेणेव पोसहसाला—और जहाँ पौषधशाला थी; तेणेव उवागच्छइ—वहाँ आया, उवागच्छिता—आकर, पोसहसालं—पौषधशाला को, पमज्ज्इ–पूँजा अर्थात् साफ किया, पमज्जित्ता पूँजकर, उच्चारपासवण भूमिं—उच्चार प्रस्रवण अर्थात् शौच तथा पेशाब करने की भूमि की, पडिलेहेइ प्रतिलेखना की, पडिलेहित्ता–प्रतिलेखना करके, दब्भसंथारयं डाभ का बिछौना, संथरइ–बिछाया, संथरित्ता बिछाकर, दब्मसंथारयं डाभ के बिछौने पर, दुरुहइ–बैठा, दुरुहित्ता—बैठकर, पोसहसालाए—पौषधशाला में, पोसहिए—पौषधिक होकर, | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 156 | आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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