________________ पात्र था। विविध प्रकार के प्रश्न उपस्थित होने पर वे उससे परामर्श लिया करते थे। परन्तु उसने इन सब बातों को आत्मसाधना में विक्षेप माना और पौषधशाला में जाकर रहने की इच्छा व्यक्त की। ज्येष्ठ पुत्र द्वारा आनन्द की आज्ञा का स्वीकारमूलम् तए णं जेट्ट-पुत्ते आणंदस्स समणोवासयस्स ‘तह' त्ति एयमढें विणएणं पडिसुणेइ // 67 // छाया–ततः खलु ज्येष्ठपुत्र आनन्दस्य श्रमणोपासकस्य ‘तथेति' एतमर्थं विनयेन प्रतिश्रृणोति / शब्दार्थ तए णं इसके अनन्तर, जेट्टपुत्ते—ज्येष्ठ पुत्र ने, आणंदस्स समणोवासयस्सआनन्द श्रमणोपासक के, एयमढें इस अभिप्राय को, तहत्ति तथेति अर्थात् जैसी आपकी आज्ञा हो, यह कहते हुए, विणएणं-विनयपूर्वक, पडिसुणेइ स्वीकार किया। ____ भावार्थ तदनन्तर ज्येष्ठ पुत्र ने आनंद श्रमणोपासक के उक्त कथन को 'तथास्तु' कहते हुए अत्यन्त विनय के साथ स्वीकार किया। मूलम् तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव पुरओ जेट्ठपुत्तं कुडुम्बे ठवेइ, ठवित्ता एवं वयासी—“मा णं, देवाणुप्पिया ! तुब्भे अज्जप्पभिई केइ ममं बहुसु कज्जेसु जाव आपुच्छउ वा, पडिपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा 4 उवक्खडेउ वा उवकरेउ वा" || 68 // छाया ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासकः तस्यैव मित्र—यावत्पुरतोः ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयति, स्थापयित्वा एवमवादीत्—मा खलु देवानुप्रियाः ! यूयमद्यप्रभृति केऽपि मम बहुषु कार्येषु याव्त आपृच्छतु वा, प्रतिपृच्छतु वा, ममार्थाय अशनं वा 4 उपस्कुरुत वा उपकुरुत वा। शब्दार्थ तएणं से आणंदे समणोवासए तत्पश्चात् उस आनन्द श्रमणोपासक ने, तस्सेव मित्त जाव पुरओ-मित्र जातिबन्धु आदि के समक्ष, जेट्टपुत्तं—ज्येष्ठ पुत्र को, कुडुम्बे-कुटुम्ब पर ठवेइ स्थापित किया। ठवित्ता स्थापित करके, एवं बयासी इस प्रकार कहा देवाणुप्पिया हे देवानुप्रियो !, अज्जप्पभिई—आज से, तुब्भे—तुम, केई—कोई भी, ममं—मुझको, बहुसु कज्जेसु विविध कार्यों के सम्बन्ध में, मा—मत, आपुच्छउ वा पूछना और नाही, पडिपुच्छउ वा परामर्श करना, ममं अट्ठाए और मेरे लिए, असणं वा४–अशन-पानादि, उवक्खडेउ वा तैयार मत करना और, न उवकरेउ वा—मेरे पास लाना / टीका प्रस्तुत पाठ में आनन्द ने दो बातों की मनाही की है, पहली बात है हे देवानुप्रियो ! अब मुझे गृहव्यवस्था सम्बन्धी किसी भी कार्य में मत पूछना, इस प्रकार उसने गृहस्थ सम्बन्धी श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 158 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन