________________ हो गए। पंद्रहवें वर्ष में एक दिन पूर्व रात्रि के अपर भाग में धर्म जागरण करते समय उसके मन में यह संकल्प उठा कि मैं वाणिज्यग्राम नगर में अनेक राजा-ईश्वर एवं स्वजनों का आधार तथा आलंबनभूत हूँ। अनेकानेक कार्यों में पूछा जाता हूँ। इस विक्षेप के कारण मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास अङ्गीकृत धर्मप्रज्ञप्ति का अच्छी तरह पालन नहीं कर सकता। अतः मेरे लिए यह श्रेय है कि कल प्रातःकाल सूर्योदय होने पर विपुल अशन-पानादि तैयार कराकर मित्र एवं परिवारादि को भोजन कराकर पूरण सेठ के समान उन सब के समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर मित्रों एवं ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर कोल्लाक सन्निवेश में ज्ञातकुल की पौषधशाला का प्रतिलेखन कर श्रमण भगवान महावीर के पास स्वीकृत धर्म प्रज्ञप्ति को यथाविधि पालन करूँ। यह विचार कर दूसरे दिन मित्रवर्ग तथा परिवार को आमंत्रित किया और पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और विपुल अशन-पानादि के द्वारा उनका सत्कार किया। तदनन्तर उन सब के समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया और कहा—पुत्र ! मैं वाणिज्यग्राम नगर में राजा, ईश्वर, आत्मीयजनादि का आधारभूत हूं। यावत् अनेकानेक कार्यों में पूछा जाता हूँ। अतः व्यस्तता के कारण धर्मप्रज्ञप्ति का सम्यक् पालन नहीं कर सकता। अतः मेरे लिए उचित है कि मैं अब तुमको कुटुम्ब के पालन-पोषणादि का भार सौंपकर एकान्त में धर्मानुष्ठान करूँ। टीका- “सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि" श्रमण भगवान महावीर के पास व्रत ग्रहण करने के पश्चात् आनन्द को चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। इस अवधि में आत्मविकास करने के लिए वह अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करता रहा। प्रस्तुत पंक्ति में उनका श्रेणी विभाजन किया गया है। सर्वप्रथम शीलव्रत हैं, जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के रूप में पहले बताए जा चुके हैं। इनका मुख्य सम्बन्ध शील अर्थात् सदाचार एवं नैतिकता से है। बौद्ध परम्परा में ये पंचशील के रूप में बताए गए हैं। योगदर्शन में इन्हें यम के रूप में प्रतिपादित किया गया और अष्टांगयोग की भूमिका माना गया है। इनके पश्चात् तीन गुणव्रत हैं जो शीलव्रतों के पोषक हैं, तथा जीवन में अनुशासन पैदा करते हैं। तत्पश्चात् सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत हैं, जो आत्मचिन्तन के लिए दैनन्दिन कर्त्तव्य के रूप में बताए गए हैं। पौषधोपवास तपस्या का उपलक्षण है, इसका अर्थ है—आनन्द शास्त्रों में प्रतिपादित अनेक प्रकार की तपस्याएँ करता रहा। परिणामतः उत्तरोत्तर जीवनशुद्धि होती गई और आत्मा में दृढ़ता आती गई। साधना में उत्साह बढ़ता गया और एक दिन मध्यरात्रि के समय धर्मचिन्तन करते हुए उसके मन में आया कि अब मुझे गृह कार्यों से निवृत्त होकर एकान्त में रहते हुए सारा समय आत्म-साधना में लगाना चाहिए। दूसरे दिन उसने अपने परिवार तथा जाति-बन्धुओं को आमंत्रित किया। भोजन, वस्त्र, पुष्प, माला, आदि के द्वारा उनका सम्मान किया और उनकी उपस्थिति में ज्येष्ठ पुत्र को गृहभार सौंपने के भाव प्रकट किए। .. आनन्द वाणिज्य ग्राम के राजा, ईश्वर सेनापति आदि समस्त प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सम्मान श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 157 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन