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________________ प्रकार का, अज्झथिए—आध्यात्मिक, चिंतिए चिंतित, कप्पिए—जिसकी पहले ही कल्पना की हुई थी, पत्थिए—प्रार्थित, मणोगए संकप्पे—मनोगत संकल्प, समुप्पज्जित्था उत्पन्न हुआ, एवं खलु अहं—मैं निश्चय ही इस प्रकार, वाणियग्गामे नयरे—वाणिज्यग्राम नगर में, बहूणं राईसर-जाव सयस्सवि णं कुडुम्बस्स—बहुत से राजा ईश्वर यावत् अपने भी कुटुम्ब का, जाव आधारे—आलम्बन यावत् आधारभूत हूं, तं एएणं वक्खेवेणं इस विक्षेप के कारण, अहं मैं, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप प्राप्त की हुई, धम्मपण्णत्तिं धर्मप्रज्ञप्ति को, उवसंपज्जित्ताणं स्वीकार करके, विहरित्तए विचरने में, नो संचाएमि-समर्थ नहीं हूँ, तं—अतः, सेयं खलु श्रेय है, ममं मुझको, कल्लं जाव जलंते—कल प्रातःकाल सूर्य के निकलते ही, जहा पूरणो—पूरण सेठ के समान, विउलं-विपूल, असणं-अशन-पान द्वारा मित्र एवं परिवारजनों को भोजन कराके, जाव—यावत्, जेट्टपुत्तं—ज्येष्ठ पुत्र को, कुडुम्बे-कुटुम्ब पर, ठवेत्ता स्थापित करके, तं—और उस, मित्त जाव जेट्टपुत्तं च मित्र यावत् ज्येष्ठ पुत्र को, आपुच्छित्ता—पूछकर कोल्लाएसन्निवेसे—कोल्लाक सन्निवेश में, नाय कुलंसि ज्ञात कुल की, पोसहसालं—पौषधशाला में, पडिलेहित्ता–प्रतिलेखन करके, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान महावीर के, अंतियं—पास प्राप्त हुई, धम्मपण्णत्तिं धर्मप्रज्ञप्ति को, उवसंपज्जित्ताणं स्वीकार करके, विहरित्तए विचरना, एवं इस प्रकार, संपेहेइ–विचार किया, संपेहित्ता विचार करके, कल्लं-दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर, विउलं–विपुल अशनादि तैयार कराया, तहेव-उसी प्रकार, जिमियभुत्तुत्तरागए सब के भोजन करने के पश्चात्, तं मित्त जाव—उस उपस्थित मित्रबर्ग एवं परिवार का, विउलेणं पुष्फ–विपुल पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला, अलंकार आदि के द्वारा, सक्कारे- इ सम्माणेइ–सत्कार-सम्मान किया, सक्कारिता सम्माणित्ता–सत्कार और सम्मान करके, तस्सेव मित्त जाव पुरओ—उसी मित्रवर्ग यावत् परिवार के समक्ष, जेट्ठपुतं—ज्येष्ठ पुत्र को, सद्दावेइ बुलाया और, सद्दावित्ता–बुलाकर, एवं वयासी—इस प्रकार कहा, एवं खलु पुत्ता हे पुत्र ! इस प्रकार निश्चय ही, अहं—मैं, वाणियग्गामे नयरे–वाणिज्यग्राम नगर में, बहूणं—बहुत से, राईसर-राजा-ईश्वर आदि का आधारभूत हूँ, अतः कार्य व्यग्रता के कारण धर्मक्रिया का अच्छी तरह पालन नहीं कर सकता। , जहा चिंतियं जाव विहरित्तए जिस प्रकार चिन्तन किया था, अर्थात् मेरे मन में विचार आया कि मैं ज्येष्ठ पुत्र को कार्यभार सौंपकर एकान्त में धर्मानुष्ठान करता हुआ विचरूँ। तं सेयं खलु मम—अतः मुझे यही श्रेय है कि, इयाणिं—अब, तुमं तुम्हें, सयस्स कुडुम्बस्स–अपने कुटुम्ब का, आलंबणं आलंबन, ठवेत्ता स्थापित करके, जाव विहरित्तए यावत् धर्म की आराधना करता हुआ जीवन व्यतीत करूं। भावार्थ तदनन्तर आनन्द श्रावक को अनेक प्रकार के शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि के द्वारा अपनी अन्तरात्मा को संस्कारित करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 156 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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