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________________ इत्यादि पद दिए हैं इनका भाव यह है कि धर्म सुनकर फिर सूक्ष्म बुद्धि से विचार कर, फिर जो हर्ष उसका होता है, वह अकथनीय होता है। कारण कि-धर्म श्रवण से ज्ञान और इससे विज्ञान, तत्पश्चात् प्रत्याख्यान किया जाता है। इस क्रम से किए हुए प्रत्याख्यान से आस्रवों का निरोध हो जाने से संवर द्वारा आत्मविकास हो जाता है। __ गौतमस्वामी का आनन्द के विषय में प्रश्न मूलम् “भंते!" त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ वंदित्ता. नमंसित्ता एवं वयासी—“पहूणं भंते! आणंदे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डे जाव पव्वइत्तए ?" “नो तिणढे समठे" गोयमा ! आणंदे णं समणोवासए बहूई वासाइं समणोवासग परियायं पाउणिहिइ, पाउणित्ता जाव सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिइ। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्सवि समणोवासगस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता" || 62 // छाया हे भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्कृत्य एवमवादीत्-"प्रभुः खलु भदन्त ! आनन्दः श्रमणोपासको देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डो यावत् प्रव्रजितो भवितुम् ?" "नायमर्थः समर्थः," "गौतम ! आनन्दः खलु श्रमणोपासको बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासक पर्यायं पालयिष्यति पालयित्वा यावत् सौधर्मे कल्पे अरुणाभे विमाने देवतया उत्पत्स्यते, तत्र खलु अस्त्येककानां देवानां चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र चाऽऽनन्दस्यापि श्रमणोपासकस्य चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता।" शब्दार्थ भगवं गोयमे भगवान् गौतम ने, भंतेत्ति हे भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधन करते हुए, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान् महावीर को, वंदइ नमसइ-वन्दना नमस्कार की , वंदित्ता नमंसित्ता–वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासी—इस प्रकार. कहा-भंते हे भगवन् !, आणंदे समणोवासए क्या आनन्द श्रमणोपासक, देवाणुप्पियाणं अंतिए–देवानुप्रिय के पास में, मुंडे-मुण्डित, जाव यावत्, पव्वइत्तए—प्रव्रजित होने में, पहूणं समर्थ है ? गोयमा भगवान् ने उत्तर दिया हे गौतम ! नो तिणठे समठे—यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यह संभव नहीं है, आणंदे णं समणोवासए—आनन्द श्रमणोपासक, बहूई वासाइं—अनेक वर्षों तक, समणोवासग परियायं श्रमणोपासक पर्याय को, पाउणिहिइ—पालन करेगा, पाउणित्ता पालन करके, जाव—यावत्, सोहम्मे कप्पे सौधर्म कल्प में, अरुणाभे विमाणे अरुणाभ नामक विमान में, देवत्ताए–देवता के रूप में, उववज्जिहिइ उत्पन्न होगा, तत्थणं वहां, अत्थेगइयाणं बहुत से, देवाणं-देवों की, चत्तारि पलिओवमाइं—चार पल्योपम, ठिई—आयु, पण्णत्ता कही गई है। तत्थणं वहाँ, आणंदस्सवि समणोवासगस्स—आनन्द श्रमणोपासक की भी, चत्तारि पलिओवमाई ठिई–चार पल्योपम आयु, पण्णत्ता है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 152 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन .
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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