________________ भावार्थ दर्शन ज्ञानमयी चेतनाभाव सहित जिनबिंब आचार्य है तिनि / प्रणामादिक करना, इहां परमार्थ प्रधान कह्या है तहाँ जड़ प्रतिबिंब की गौणता है। आगै फेरि कहे है तव वय गुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं / अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य // " तपोव्रत गुणैः शुद्धो जानाति पश्यति शुद्ध सम्यक्त्म् | अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षा शिक्षाणां च // वचनिका—जो तप अर व्रत अर गुण कहिए, उत्तर गुण तिनिकरि शुद्ध होय बहुरि सम्यग् ज्ञान करि पदार्थनि कूँ यथार्थ जानें बहुरि सम्यग्दर्शनं करि पदार्थनि कूँ देखै याही तैं शुद्ध सम्यक्त्व जाकै ऐसा जिनबिंब आचार्य है सो येही दीक्षा शिक्षा की देने वाली अरहंत की मुद्रा है। भावार्थ ऐसा जिनबिंब है सो जिनमुद्रा ही है ऐसैं जिनबिंब का स्वरूप कह्या है। यह वचनिका पं. जयन्द्र छावड़ा की है, इससे यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि चैत्य शब्द साधु और ज्ञान का वाचक भी है, इस स्थान पर उक्त दोनों अर्थ युक्तियुक्त सिद्ध होते हैं, कारण कि आलाप-संलाप आदि चेतन से ही सिद्ध हो सकते हैं न कि जड़ से। आनन्द ने अन्य मतावलम्बियों के साथ सम्पर्क न रखने का निश्चय किना, किन्तु जीवन व्यवहार के लिए तथा राजकीय एवं सामाजिक अनुरोध की दृष्टि से कुछ छूटें रखीं। वे नीचे लिखे अनुसार हैं (1) रायाभिओगेणं—(राजाभियोगेन) अभियोग का अर्थ है. बलप्रयोग / यदि राजकीय आज्ञा के कारण विवश होकर अन्य मतावलम्बियों के साथ संभाषण आदि करना पड़ता है, तो उसकी छूट (2) गणाभिओगेणं—(गणाभियोगेन) गण का अर्थ है—समाज अथवा व्यापार खेती आदि के लिए परस्पर सहयोग के रूप में एकत्रित व्यक्तियों का दल / भगवान महावीर के समय लिच्छवि, मल्लि आदि लोकतन्त्रीय शासन भी गण कहलाते थे। इसका अर्थ है—व्यक्ति जिस गण का सदस्य है, उस गण का बहुमत यदि कोई निर्णय करे तो वैयक्तिक मान्यता के विपरीत होने पर भी उसे मानना आवश्यक हो जाता है। .. (3) बलाभिओगेणं—बल का अर्थ है सेना, उसकी आज्ञा के रूप में यदि ऐसा करना पड़े तो छूट है। . (4) गुरुनिग्गहेणं (गुरुनिग्रहेण) माता-पिता-अध्यापक आदि गुरुजनों का आग्रह होने पर भी ऐसा करने की छूट है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 146 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /