________________ किछु क्षोभ नांही है निश्चल है, बहुरि जंगमरूप करि निर्मित है कर्मत निर्मुक्त हुये पीछे एक समय मात्र गमनरूप होय है, तातें जंगम रूपकरि निर्मापित है, बहुरि सिद्धस्थान जो लोक का अग्रभाग ता विर्षे स्थित है याही तैं व्युत्सर्ग कहिये कायरहित है जैसा पूर्वं देह मैं आकार था तैसा ही प्रदेशनिका आकार किछू घाटि ध्रुव है, संसार से मुक्त होय एक समय गमन करि लोक कै अग्रभाग विर्षे जाय तिष्ठं पीछे चलाचल नांही है ऐसी प्रतिमा सिद्ध है। भावार्थ—पहलें दोय गाथा मैं तौ जंगम प्रतिमा संयमि मुनिनिकी देह सहित कही, बहुरि इनि दोय गाथानि मैं थिर प्रतिमा सिद्धनिकी कही ऐसैं जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कह्या अन्य केई अन्यथा बहुत प्रकार कल् है सो प्रतिमा वंदिवे योग्य नाही है। आगैं जिनबिंब का निरूपण करै हैं “जिणबिंबं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च / जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ||" .. जिनबिंबं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च / यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षय कारणे शुद्धे || वचनिका—जिनबिंब कैसा है ज्ञानमयी है अर संयम करि शुद्ध है बहुरि अतिशय करि वीतराग है बहुरि जो कर्म का क्षय का कारण अर शुद्ध है ऐसी दीक्षा अर शिक्षा दे हैं। . भावार्थ जो जिन कहिए अरहंत सर्वज्ञ का प्रतिबिंब कहिए ताकी जायगां तिस की ज्यौं मानने योग्य होय, ऐसे आचार्य हैं सो दीक्षा कहिए व्रत का ग्रहण अर शिक्षा कहिए व्रत का विधान बतावनां ये दोऊ कार्य भव्य जीवनि | दे है, यात प्रथम तौ सो आचार्य ज्ञानमयी होयं जिन सूत्र का जिन। ज्ञान होय ज्ञान बिना दीक्षा शिक्षा कैसे होय अर आप संयम करि शुद्ध होय ऐसा न होय तौ अन्य दूँ भी संयम शुद्ध न करावै, बहुरि अतिशय करि वीतराग न होय तो कषायसहित होय तब दीक्षा शिक्षा यथार्थ न दे, या तैं ऐसे आचार्य कूँ जिन के प्रतिबिंब जाननें / आ फेरि कहै है तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं / जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणा भावो ||" तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां च विनयं वात्सल्यम् / यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः // वचनिका—ऐसे पूर्वोक्त जिनबिंब कूँ प्रणाम करो बहुरि सर्व प्रकार पूजा करो विनय करो वात्सल्य करो, काहे तैं—जाकै ध्रुव कहिए निश्चयतें दर्शन ज्ञान पाइए है बहुरि चेतना भाव है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 148 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन