________________ कही है। दर्शन ज्ञान करि निर्मल चारित्र जिनकै पाइये ऐसे मुनिनि की गुरु शिष्य अपेक्षा अपनी तथा परकी चालती देह-निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है सो जिन मार्ग विषै प्रतिमा है अन्य कल्पित है अर धातु पाषाण आदि करि दिगम्बर मुद्रा स्वरूप प्रतिमा कहिए सो व्यवहार है सो भी बाह्य प्रकृति ऐसी ही होय सो व्यवहार में मान्य है। आगै फेरि कहै हैं "जं चरदि सुद्ध चरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं / सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा // यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् / सा भवति वंदनीया निर्ग्रन्था सांयता प्रतिमा | वचनिका—जो शुद्ध आचरण] आचरै बहुरि सम्यग्ज्ञान करि यथार्थ वस्तुकूँ जानै है बहुरि सम्यग्दर्शनकरिय अपने स्वरूप] देखै है ऐसैं शुद्ध सम्यक् जाकै पाइये है ऐसी निर्ग्रन्थ संयम स्वरूप प्रतिमा है सो वंदिवे योग्य है। - भावार्थ जानने वाला, देखने वाला, शुद्ध सम्यक्त्व शुद्ध चारित्र स्वरूप निर्ग्रन्थ संयम सहित मुनि का स्वरूप है सो ही प्रतिमा है सो ही वंदिवे योग्य अन्य कल्पित वंदिवे योग्य नाँहि है, बहुरि तैसे ही रूप सदृश धातु पाषण की प्रतिमा होय सो व्यवहार करि वंदिवे योग्य है / आगै फेरि कहै है— "दंसण अणंत णाणं अणंवीरिय अणंत सुक्खा य / सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठ बंधेहिं // निरुवममचलमखोहा णिम्मिविया जंगमेण रूवेण / सिद्धट्ठाणम्मि ठिया वोसर पडिमा धुवा सिद्धा ||" दर्शनम् अनंतज्ञानं अनन्तवीर्याः अनन्तसुखाः च / शाश्वतसुखा अदेहाः मुक्ताः कर्माष्टकबंधैः // निरुपमा अचला अक्षोभाः निर्मापिता जंगमेन रूपेण | सिद्धस्थाने स्थिताः व्युत्सर्ग प्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः || . वचनिका—जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख इनि करिसहित है, बहुरि शाश्वता अविनाशी सुख स्वरूप है, बहुरि अदेह है कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनकै नांही है, बहुरि अष्टकर्म के बंधन करि रहित है, बहुरि उपमा करि रहित है, जाकी उपमा दीजिये ऐसा लोक में वस्तु नाँही है, बहुरि अचल है प्रदेशनिका चलनां जिनकै नांही है बहुरि अक्षोभ है जिनिकै उपयोग मैं श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 147 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन