________________ चैत्यं बंधं मोक्षं दुख सुखं आत्मकं तस्य / चैत्यं गृहं जिनमार्गे षट्कायहितंकरं भणितम् // वचनिका—जाकै बंध अर मोक्ष बहुरि सुख अर दुख ये आत्मा के होंय जाकै स्वरूप में होंय सो चैत्य कहिए जातें चेतना स्वरूप होंय ताहीकै बंध, मोक्ष, सुख, दुख संभवै ऐसा जो चैत्य का गृह होय सो चैत्यगृह है। सो जिन मार्ग विर्षे ऐसा चैत्य गृह छह काय का हित करने वाला होय सो ऐसा मुनि है सो पाँच थावर अर त्रस में विकलत्रय अर असैनी पंचेन्द्रियताई केवल रक्षा ही करने योग्य है, तातै तिनिकी रक्षा करने का उपदेश करै है, तथा आप तिनिका घात न करै है तिनिका यही हित है, बहुरि सैनी पंचेन्द्रिय जीव हैं तिनी की रक्षा भी करै है रक्षा का उपदेश भी करै है तथा तिनिळू संसार तें निवृत्त रूप मोक्ष होने का उपदेश करै है ऐसे मुनिराजकू चैत्यगृह कहिए। भावार्थ लौकिकजन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेक प्रकार माने हैं तिनिधैं सावधान किए हैं—जो जिन सूत्र में छह काय का हित करने वाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है सो चैत्यगृह है, अन्य। चैत्यगृह कहना मानना व्यवहार है, ऐसे चैत्यगृह का स्वरूप कह्या। इन गाथाओं से सिद्ध होता है कि चैत्य शब्द ज्ञान और साधु का वाचक है। इसलिए इस स्थान पर उक्त दोनों अर्थ संगत होते हैं। चाहे जैन साधु ने परदर्शन की श्रद्धा ग्रहण की हो चाहे परदर्शन वालों ने अपने वेष को न छोड़ते हुए जैन ज्ञान ग्रहण किया हो यह दोनों श्रावक के वन्दन करने योग्य नहीं हैं। इनसे संगति करने वालों को मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। इसलिए इनके साथ विशेष परिचय हानिकारक है। दान का निषेध धर्मबद्धि से किया गया है न कि करुणाभाव से. कारण के पड जाने पर षट् कारण ऊपर कथन किए जा चुके हैं जैसे कि राजा आदि के अभियोग से इत्यादि। ___जिन प्रतिमा और जिन बिम्ब का स्वरूप जो श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य ने किया है वह भी पाठकों के देखने योग्य है “सपरा जंगम देहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं / णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा // स्वपरा जंगमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् / निर्ग्रन्थ वीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा // वचनिका—दर्शन ज्ञान करि शुद्ध निर्मल है चारित्र जिनकै तिनिकी स्वपरा कहिये अपनी अर पर की चालती देह है सो जिन मार्गविषै जंगम प्रतिमा है, अथवा स्वपरा कहिए आत्मा तै पर कहिए भिन्न है ऐसी देह है, सो कैसी है—निर्ग्रन्थ स्वरूप है, जाके किछू परिग्रह का लेश नाहीं, ऐसी दिगम्बरमुद्रा, बहुरि कैसी है—वीतरागस्वरूप है जाकै काहू वस्तुसौं राग द्वैष मोह नाहीं, जिन मार्ग विषै ऐसी प्रतिमा | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 146 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन