________________ 'अन्नउत्थिय परिग्गहिआई' के पश्चात्—'चेइआई' या अरिहंत चेइआई' पाठ मिलता है और चैत्य शब्द का अर्थ मन्दिर या मूर्ति किया जाता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है—वे जिन मन्दिर या जिनप्रतिमाएँ जिन पर दूसरों ने अधिकार कर लिया है, किन्तु यह अर्थ ठीक नहीं बैठता। इसके दो कारण हैं, पहली बात यह है कि जैन परम्परा इस बात को नहीं मानती कि दूसरे द्वारा स्वीकृत होने मात्र से मन्दिर या धर्म स्थान भ्रष्ट हो जाता है। दूसरी बात यह है कि प्रतिमा के साथ आलाप, संलाप तथा अशन, पान आदि देने का सम्बन्ध नहीं बैठता। यहाँ चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान या धार्मिक मर्यादाएँ है। इसके विभिन्न अर्थों को प्रकट करने के लिए प्रामाणिक ग्रन्थों से कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं, रायपसेणीय सूत्र की टीका में मलयगिरि ने नीचे लिखा अर्थ किया है-चेइयं चैत्यं प्रशस्त मनोहेतुत्वात्, भगवान् प्रशस्त होने के कारण चैत्य हैं। पद्मचन्द्र कोष के 151 पृष्ठ पर चैत्य शब्द के निम्नलिखित अर्थ किए हैं— चैत्य (न.) चित्याया इदम् अण् / गाँव आदि में प्रसिद्ध महावृक्ष, देवता के पास का वृक्ष, बुद्ध भेद, मन्दिर, जनसभा, यज्ञ का स्थान, लोगों के विश्राम की जगह, देवता का स्थान, बिम्ब / दिगम्बर परम्परां में मूल संघ के प्रवर्तक श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने अष्टपाहुड ग्रन्थ में चैत्य शब्द का अर्थ साधु किया है, ये गाथाएँ तथा उनकी वचनिका निम्नलिखित हैं "बुद्धं जं वोहंतो अप्पाणं चेदयाइं अण्णं च / पंच महव्वय सुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं // ' बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यत् च / पंच महाव्रत शुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यगृहम् // वचनिका—जो मुनि बुद्ध कहिए ज्ञानमयी ऐसी आत्मा ताहि जानता होय बहुरि अन्य जीवनकूँ चैत्य कहिए चेतना स्वरूप जानता होय बहुरि आप ज्ञानमयी होय बहुरि पाँच महाव्रतनिकरि शुद्ध होय निर्मल होय ता मुनिकुँ हे भव्य चैत्य गृह जानि / भावार्थ जामैं आपा पर का जानने वाला ज्ञानी निःपाप निर्मल ऐसा चैत्य कहिए चेतना स्वरूप आत्मा वैसे सो चैत्य गृह है सो ऐसा चैत्यगृह संयमी मुनि है। अन्य पाषाण आदि का मंदिरकू चैत्य गृह कहना व्यवहार है। आगै फेरि कहै है "चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स | चेइहरं जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 145 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन