________________ रखते हैं, उनकी तुलना शिक्षा व्रतों के साथ की जा सकती है, पंचम अंग प्रत्याहार का अर्थ है. मन तथा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर आत्मा की ओर उन्मुख करना, यह एक प्रकार से समभाव साधना रूप सामायिक का ही प्रकारान्तर है। धारणा, ध्यान और समाधि रूप अन्तिम तीन अंगों में मन की एकाग्रता या निरोध पर बल दिया गया है और इन तीनों को संयम शब्द से प्रकट किया है। यह भी मन को बाह्य प्रवृत्तियों से रोककर आत्म-चिन्तन में स्थिर करने का अभ्यास है, फलतः कुछ विद्वान इन्हें भी जैन सामायिक का ही एक परिवर्तित रूप मानते हैं, शेष व्रत उसी के पोषक हैं। .. जैन परम्परा में तप के बारह भेद किए गए हैं, उनमें प्रथम छह बाह्य तप हैं और शेष छह आभ्यन्तर तप, योग के अन्तिम चार अंग और आभ्यन्तर तप के छह भेदों में बहुत समानता है। . सूत्र में दूसरी बात आनन्द द्वारा सम्यक्त्व ग्रहण अथवा अपनी श्रद्धा के प्रकटीकरण की है, वह घोषणा करता है—भगवन्! आज से अन्ययूथिक देव तथा अन्यूथिकों द्वारा परिगृहीत चैत्यों को वन्दना नमस्कार करना, उनसे परिचय बढ़ाना, उनके बिना बुलाए अपनी ओर से बोलना मेरे लिए वर्जित है। उन्हें धर्मबुद्धि से अशन, पान आदि किसी प्रकार का आहार अथवा वस्त्र-पात्र आदि का दान देना भी वर्जित है। परन्तु उन पर अनुकम्पा बुद्धि से देने का निषेध नहीं है। यहां कई बातें विचारणीय हैं, उस चर्चा में जाने से पूर्व वृत्तिकार के शब्द उद्धृत करना उचित होगा—“अन्यूथिकेभ्योऽशनादि दातुं वा सकृत्, अनुप्रदातुं वा पुनः पुनरित्यर्थः, अयं च निषेधो धर्मबुद्ध्यैव, करुणया तु दद्यादपि।" श्रावक का इतर धर्मावलम्बियों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए यहाँ इस बात की चर्चा की गई है, उन्हें वन्दना नमस्कार करना, उनके साथ संलाप करना तथा उन्हें भोजन वस्त्रादि दान देना आनन्द अपने लिए वर्जित मानता है, किन्तु यह निषेध धर्मबुद्धि या आध्यात्मिक दृष्टि से है। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने स्वीकृत मार्ग पर दृढ़ विश्वास रखे और उससे विचलित न हो, उस मार्ग के तीन अंग हैं—(१) आदर्श, (2) पथप्रदर्शक, (3) पथ / इन्हीं को देव, गुरु और धर्म शब्द से प्रकट किया जाता है। देव आदर्श का कार्य करते हैं और उस लक्ष्य को अपने जीवन द्वारा प्रस्तुत करते हैं जहाँ साधक को पहुँचना है। गुरु उस पथ को अपने जीवन एवं उपदेशों द्वारा आलोकित करते हैं और उस पथ का नाम धर्म है। प्रस्तुत सूत्र में अन्य यूथिक शब्द से इतर मतावलम्बी धर्म गुरुओं का निराकरण किया गया है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि विभिन्न विचारधारा के आग्रही धर्म गुरुओं के संकेत पर आँख मून्द कर चलने वाला या उनकी बातों को महत्व देने वाला साधक आत्मशुद्धि के विशिष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। दूसरे पद द्वारा अन्य देवों का निराकरण किया गया है। और तीसरे द्वारा अन्यमतीय मठ एवं स्थानों का। जहाँ तक लौकिक व्यवहार परस्पर सहायता एवं अनुकम्पा दान का प्रश्न है उनका इस पाठ से कोई संबंध नहीं है, इसीलिए आचार्य अभयदेव ने इस पाठ की टीका करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है—“अयं च निषेधो धर्म बुद्ध्यैव, करुणया तु दद्यादपि।" श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 144 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन