________________ प्रासुक-एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध, भैषज्य देकर उनका सत्कार करते हुए विचरण करना कल्पता है। आनन्द ने उक्त रीति से अभिग्रह धारण किया, अभिग्रह ग्रहण करके उसने भगवान से प्रश्न पूछे और भगवान द्वारा कहे गए तथ्यों को ग्रहण किया। उसके बाद श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वन्दना की। भगवान के पास से उठकर दूतिपलाश चैत्य से बाहर निकला और अपने घर पहुंचा। अपनी शिवानन्दा नामक पत्नी से इस प्रकार बोला हे देवानुप्रिये! आज मैंने श्रमण भगवान महावीर से धर्म श्रवण किया। वह मुझे अतीव इष्ट एवं रुचिकर लगा। देवानुप्रिये! तुम भी जाओ, भगवान की वन्दना करो, यावत् पर्युपासना करो और श्रमण भगवान महावीर से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहस्थ का धर्म स्वीकार करो। टीका प्रस्तुत सूत्र में तीन बातें हैं—(१) आनन्द गाथापति द्वारा व्रत ग्रहण का उपसंहार / (2) उसके द्वारा सम्यक्त्व ग्रहण अर्थात् जैन धर्म में दृढ़ श्रद्धा का प्रकटीकरण और (3) अपनी पत्नी को व्रत ग्रहण के लिए भगवान महावीर के पास जाने का परामर्श / 'यहाँ गृहस्थ धर्म को पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत के रूप में प्रकट किया गया है। अणुव्रत का अर्थ है छोटे व्रत / मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का पूर्णतया पालन करता है, अतः उसके व्रत को महाव्रत कहा जाता है। श्रावक या गृहस्थ अहिंसा आदि व्रतों का पालन मर्यादित रूप में करता है, अतः महाव्रतों की तुलना में उसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बारह व्रतों का विभाजन पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत के रूप में किया गया है। अन्यत्र यह विभाजन पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत के रूप में भी मिलता है। छठा दिग्व्रत, सातवाँ उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत तथा आठवाँ अनर्थदण्ड विरमण व्रत, गुण व्रत में सम्मिलित किए जाते हैं। अणुव्रतों का सम्बन्ध मुख्यतया नैतिकता एवं सदाचार के रूप में आत्म-शुद्धि से है, और शिक्षाव्रतों का उद्देश्य उक्त आत्मशुद्धि को अधिकाधिक विकसित करना है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ___ पतञ्जलि ने अपने योग सूत्र में अहिंसादि व्रतों को यम शब्द से प्रकट किया है और उन्हें अष्टांगिक योग मार्ग का प्रथम सोपान अथवा मूलाधार माना है। इनके बिना योग अथवा आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है। उसने इन्हें अपनी परिभाषा विशेष के अनुसार महाव्रत भी कहा है, पतञ्जलि के अनुसार अहिंसादिक व्रत सार्वभौम होते हैं, वे देश, काल और परिस्थिति की मर्यादा से परे होते हैं, अर्थात् जब उनका पालन प्रत्येक स्थिति में अपेक्षित होता है, तब उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहा जाता है। पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित योग के अन्तिम चार अंग मुख्यतया आत्मशुद्धि के साथ सम्बन्ध श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 143 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन