________________ अरण्यादि में वृत्ति के लिए विवश होने पर। कप्पइ मे—मुझे कल्पता है, समणे निग्गंथेश्रमण-निर्ग्रन्थों को, फासुएणं—प्रासुक, एसणिज्जेणं एषणीय, असण-पाण-खाइम-साइमेणं अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से, वत्थ-पडिग्गहकंबलपायपुञ्छणेणं वस्त्र, कंबल, पात्र, पादप्रोञ्छन, पीठफलगसिज्जासंथारएणं पीढ, फलक, शय्या, संस्तारक, ओसहभेसज्जेणं य–तथा औषध भैषज्य के द्वारा, पडिलाभेमाणस्स—उनका सत्कार करते हुए, (बहराते हुए), मे—मुझे, विहरित्तए विचरण करना, त्ति कटु इस प्रकार कहकर, इमं एयारूवं अभिग्गहं—आनन्द ने इस प्रकार का अभिग्रह, अभिगिण्हइ ग्रहण किया, अभिगिण्हित्ता ग्रहण करके, पसिणाई–प्रश्न, पुच्छइ—पूछे, पुच्छित्ता—पूछकर, अट्ठाइं—भगवान के द्वारा कहे गए तथ्यों को, आदियइ ग्रहण किया, आदिइत्ता ग्रहण करके, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान महावीर की, तिक्खुत्तो—तीन बार, वंदइ-वन्दना की, वंदित्ता-वन्दना करके, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान महावीर स्वामी के, अंतियाओ—पास से, दूइपलासाओ चेइयाओ—दुतिपलाश चैत्य से. पडिणिक्खमइनिकला, पडिणिक्खमित्ता निकलकर, जेणेव वाणियग्गामे नयरे जिधर वाणिज्य ग्राम नगर था, जेणेव सएगिहे—जहाँ अपना घर था, तेणेव वहाँ, उवागच्छइ—आए, उवागच्छित्ता—आकर, सिवनंदं भारियं शिवानन्दा भार्या को, एवं वयासी—इस प्रकार बोला—देवाणुप्पिए हे देवानुप्रिये! एवं खलु इस प्रकार निश्चय ही, मए मैंने समणस्स भगवओ महावीरस्स श्रमण भगवान महावीर के, अंतिए—पास, धम्मे—धर्म, निसंते श्रवण किया है, से वि य धम्मे—और वह धर्म, मे—मेरे को इच्छिए—इष्ट है, पडिच्छिए—अतीव इष्ट है, अभिरुइए और अच्छा लगा है, तं—इसलिए, देवाणुप्पिए हे देनानुप्रिय!, तुमं पि—तुम भी, गच्छ णं-जाओ, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को, वंदाहि—वन्दना करो, जाव—यावत्, पज्जुवासाहि पर्युपासना करो, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान महावीर के, अंतिए—पास, पंचाणुव्वइयं—पाँच अणुव्रत, सत्तसिक्खावइयं सात शिक्षाव्रत रूप, दुवालसविहं गिहिधमं - बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म को, पडिवज्जाहि—स्वीकार करो। ___ भावार्थ इसके पश्चात् आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार का श्रावक धर्म-गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। भगवान को नमस्कार करके वह इस प्रकार बोला-भगवन्! आज से मुझे निर्ग्रन्थ संघ से इतर संघ वालों को, अन्ययूथिक देवों को, अन्ययूथिकों द्वारा परिगृहीत चैत्यों को वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता है, इसी प्रकार उनके बिना बुलाए अपनी ओर से बोलना, उनको गुरुबुद्धि से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य देना तथा उनके लिए इसका आग्रह करना नहीं कल्पता है। परन्तु राजा के अभियोग से, गण (संघ) के अभियोग से, बलवान के अभियोग से, देवता के अभियोग से, गुरुजन माता-पिता आदि के आग्रह के कारण तथा वृत्तिकान्तार (आजीविका के लिए विवश होकर) यदि कभी ऐसा करना पड़े, तो आगार है, मुझे निर्ग्रन्थ श्रमणों को श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 142 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन