________________ संलेखना के पांच अतिचारमूलम् तयाणंतरं च णं अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पोगे, कामभोगासंसप्पओगे॥ 57 // छाया तदनन्तरं च खलु अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाऽऽराधनायाः पंच अतिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा इहलोकाशंसाप्रयोगः, परलोकाशंसाप्रयोगः, जीविताशंसाप्रयोगः, मरणाशंसाप्रयोगः, कामभोगाशंसाप्रयोगः। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं—इसके अनन्तर, अपच्छिममारणंतिय-संलेहणा-झूसणाराहणाएअपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना-जोषणा आराधना के, पंच अइयारा—पाँच अतिचार, जाणियव्वाजानने चाहिएं, न समायरियव्वा परन्तु आचरण न करने चाहिएं, तं जहा–वे इस प्रकार हैंइहलोगासंसप्पओगे इस लोक के सुखों की अभिलाषा करना, परलोगासंसप्पओगे—परलोक के सुखों की अभिलाषा करना, जीवियासंसप्पओगे—जीविताशंसाप्रयोग, मरणासंसप्पओगे मरणाशंसाप्रयोग, कामभोगासंसप्पओगे काम-भोगाशंसाप्रयोग। ___ भावार्थ इसके पश्चात् श्रमणोपासक को अपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना-जोषणा आराधना के पांच अतिचार जानने चाहिएं, परंतु आचरण नहीं करने चाहिएं। वे इस प्रकार हैं-(१) इहलोकाशंसाप्रयोग—इस लोक के सुखों की अभिलाषा करना, (2) परलोकाशंसाप्रयोग—परलोक के सुखों की अभिलाषा करना, (3) जीविताशंसाप्रयोग जीने की आकांक्षा करना, (4) मरणाशंसाप्रयोग —मृत्यु की आकांक्षा करना, (5) कामभोगाशंसाप्रयोग-काम-भोगों की आकांक्षा करना। टीका—जैन धर्म के अनुसार जीवन अपने आप में कोई स्वतन्त्र एवं अन्तिम लक्ष्य नहीं है, यह आत्म विकास का साधन मात्र है। अतः साधक के लिए, वह साधु हो या सद्गृहस्थ, आवश्यक माना गया है कि जब तक शरीर के द्वारा धर्मानुष्ठान होता रहे तब तक उसकी सही सार संभाल रखे। किन्तु रोग अथवा अशक्ति के कारण जब शरीर धर्म क्रियाएं करने में असमर्थ हो जाए, अथवा रोग आदि के कारण मन में दुर्बलता आने लगे और विचार मलिन होने लगें तो उस समयं यही उचित है कि शान्ति एवं दृढ़ता के साथ शरीर के संरक्षण का प्रयत्न छोड़ दिया जाए। इसके लिए साधक भोजन का त्याग कर देता है और पवित्र स्थान में आत्मचिन्तन करता हुआ शान्तिपूर्वक आध्यात्मिक साधना के पथ पर अग्रसर होता है। इस व्रत को संलेखना कहा जाता है, जिसका अर्थ है समस्त सांसारिक व्यापारों का उपसंहार / सूत्र में इसके दो विशेषण हैं 'अपश्चिमा' और 'मारणान्तिकी'। अपश्चिमा का अर्थ है "अन्तिम श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 138 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन