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________________ अर्थात् जिसके पीछे जीवन का कोई कर्त्तव्य शेष नहीं रहता। मारणान्तिकी का अर्थ है—मरने तक चलने वाली। इस व्रत में ऐहिक तथा पारलौकिक समस्त कामनाओं का परित्याग कर दिया जाता है, इतना ही नहीं जीवन मृत्यु की आकांक्षा भी वर्जित है, अर्थात् व्रतधारी न यह चाहता है कि जीवन कुछ समय के लिए लम्बा हो जाए और न व्याकुल होकर शीघ्र मरना चाहता है। वह शान्तचित्त होकर केवल आत्म-चिन्तन में लीन रहता है। यहाँ वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं 'अपच्छिमे' त्यादि, पश्चिमैवापश्चिमा मरणं प्राणत्यागलक्षणं तदेवान्तो मरणान्तः तत्र वा मारणान्तिकी, संलिख्यते कृशीक्रियते शरीरकषायाद्यनयेति संलेखना तपोविशेषलक्षणा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः तस्याः जोषणा–सेवना तस्या आराधना, अखण्डकालकरणमित्यर्थः, अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना जोषणाराधना, तस्याः।" / ___ यहाँ संलेखना का अर्थ शरीर एवं कषायों का कृश करना बताया गया है। इसके पश्चात् जोषणा और आराधना शब्द लगे हुए हैं, जोषणा का अर्थ है प्रीति या सेवन करना। यह संस्कृत की 'जुषी प्रीति सेवनयोः' से बना है। आराधना का अर्थ है जीवन में उतारना। संलेखना के पाँच अतिचार नीचे लिखे अनुसार हैं (1) इहलोगासंसप्पओगे—(इहलोकाशंसाप्रयोग) ऐहिक भोगों की कामना अर्थात् मरकर राजा, धनवान या सुखी एवं शक्तिशाली बनने की इच्छा / (2) परलोगासंसप्पओगे—(परलोकाशंसा प्रयोग) स्वर्ग सम्बन्धी भोगों की इच्छा, जैसे कि मरने के पश्चात् मैं स्वर्ग में जाऊँ और सुख भोगूं आदि / (3) जीवियासंसप्पओगे—(जीविताशंसा प्रयोग) यश-कीर्ति आदि के प्रलोभन अथवा मृत्यु भय के कारण जीने की आकांक्षा करना। (4) मरणासंसप्पओगे—(मरणाशंसा प्रयोग) भूख, प्यास अथवा अन्य शारीरिक कष्टों के कारण शीघ्र मरने की आकांक्षा, ताकि इन कष्टों से शीघ्र ही छुटकारा हो जाए। . . (5) कामभोगासंसप्पओगे—(कामभोगाशंसाप्रयोग) इस लोक या परलोक में शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि किसी प्रकार के इन्द्रिय विषय को भोगने की आकांक्षा करना अर्थात् ऐसी भाक्य रखना कि अमुक पदार्थ की प्राप्ति हो / * अन्तिम समय में जीवन की समस्त आकांक्षाओं एवं मोह ममता से निवृत्त होने के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसे आत्महत्या कहना अनुचित है, आत्महत्या में मनुष्य क्रोध, शोक, मोह, दुख अथवा किसी अन्य मानसिक आवेग से अभिभूत होता है, उसकी विचार शक्ति कुण्ठित हो जाती है और परिस्थिति का सामना करने की शक्ति न होने के कारण वह अपने प्राणों का अन्त करना चाहता है। किन्तु संलेखना में जीने और मरने की आकांक्षा भी वर्जित है। चित्त शान्ति और तटस्थवृत्ति श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 136 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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