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________________ 'अतिथि संविभाग व्रत' भी है। 'संविभाग' का अर्थ है—सम्यक् प्रकार से विभाजन / यथा शब्द का अर्थ है—उचित रूप से अथवा मुनि आदि चारित्र सम्पन्न योग्य पात्र के लिए अपने अन्न, पान, वस्त्र आदि में से यथाशक्ति विभाजन करना अर्थात् उसे देना यथासंविभाग या अतिथि-संविभाग व्रत है। इसके अतिचारों में मुख्य बात ‘दान न देने की भावना' है। इस भावना से प्रेरित होकर किसी प्रकार की टालमटोल करना इस व्रत का अतिचार है। उपलक्षण के रूप में उसके निम्नलिखित 5 प्रकार हैं (1) सचित्त निक्खेवणया (सचित्तनिक्षेपण) दान न देने के अभिप्राय से अचित्त वस्तुओं को सचित्त धान्य आदि में मिला देना अथवा कल्पनीय वस्तुओं में सचित्त वस्तु मिला देना सचित्त निक्षेपण है। तात्पर्य यह है कि सचित्त व्रीहि (तुष सहित चावल) आदि में अगर अचित्त मिला देंगे या अचित्त अन्न आदि में सचित्त चावल आदि मिला देंगे तो साधु ग्रहण नहीं करेंगे, ऐसी भावना करके सचित्त में अचित्त और अचित्त में सचित्त मिला देना सचित्तनिक्षेपण अतिचार है। (2) सचित्तपेहणया (सचित्तपिधान) इसी प्रकार पूर्वोक्त भावना से सचित्त वस्तु से अचित्त को और अचित्त से सचित्त को ढ़ांप देना सचित्त-पिधान अतिचार है। (3) कालाइक्कम्मे—(कालातिक्रम) अर्थात् समय का उल्लंघन करना, 'साधु का सत्कार भी हो जाए और आहार भी नं देना पड़े, ऐसी भावना से भोजनसमय को टालकर भिक्षा देने को तैयार होना कालातिक्रम' अतिचार है। (4) परववएसे—(परव्यपदेश) टालने के लिए अपनी वस्तु को दूसरे की बताना / (5) मच्छरिया–(मत्सरिता) ईर्ष्यावश आहार आदि का देना, यथा अमुक ने अमुक दान दिया है, मैं इस से कोई कम नहीं हूं, इस भावना से देना। अथवा दान देने में कंजूसी करना मात्सर्य अतिचार है। कोई-कोई मत्सर का अर्थ क्रोध करते हैं, उनके मत से क्रोधपूर्वक भिक्षा देना मात्सर्य अतिचार है। इसके विपरीत यदि आहारादि देवे ही नहीं या देते हुए को रोके अथवा देकर पश्चात्ताप करे तो व्रत भंग समझना चाहिए, कहा भी है "ण देइ वारेइ य दिज्जमाणं, तहेव दिन्ने परितप्पए य / इयेरिसो जो किवणस्स भावो, भंगो वये बारसगे इहेसो ||" न ददाति वारयति च दीयमानं, तथैव दत्ते परितप्यते च / इत्येतादृशो यः कृपणस्य भावः, भङ्गो व्रते द्वादशके इहैषः / स्वयं न देना, दूसरा लेने लगे तो उसे मना करना अथवा देकर पछताना आदि से बारहवें व्रत का भंग होता है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 137 | आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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