SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस व्रत में चार बातों का त्याग किया जाता है— 1. अशन, पान आदि चारों आहारों का / 2. शरीर का सत्कार-वेशभूषा, स्नानादि / 3. मैथुन / 4. समस्त सावध व्यापार। इन चार बातों का मानसिक चिन्तन पाँचवें अतिचार के अन्तर्गत है। वृत्तिकार का कथन है—“कृतपौषधोपवासस्यास्थिरचित्ततयाऽऽहारशरीरसत्काराब्रह्मव्यापाराणामभिलषणादननुपालना पौषधस्येति, अस्य चातिचारत्व भावतो विरतेर्बाधितत्वादिति / " जैन परम्परा में द्वितीय, पंचमी, अष्टमी, एकादशी तथा चतुर्दशी को पर्व तिथियाँ माना गया है। उनमें भी अष्टमी और चतुर्दशी के दिन विशेष रूप से धर्माराधन किया जाता है। पौषधोपवास व्रत भी प्रायः इन्हीं पर किया जाता है। यथासंविभाग व्रत के पांच अतिचारमूलम् तयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा–सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया || 56 // छाया तदनन्तरं च खलु यथासंविभागस्य श्रमणोपासकेन पंच अतिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-सचित्तनिक्षेपणता, सचित्तपिधानम्, कालातिक्रमः, परव्यपदेशः, मत्सरिता। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर, समणोवासएणं श्रमणोपासक को, अहासंविभागस्स—यथासंविभाग व्रत के, पंच अइयारा—पाँच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा परन्तु आचरण न करने चाहिएं, तं जहा वे इस प्रकार हैं—सचित्तनिक्खेवणयासचित्तनिक्षेपण, सचित्तपेहणया—सचित्तपिधान, कालाइक्कमे—कालातिक्रम, परववएसे—परव्यपदेश, मच्छरिया—मत्सरिता। भावार्थ इसके पश्चात् श्रमणोपासक को यथासंविभाग व्रत के पाँच अतिचार जानने चाहिएँ, परन्तु आचरण न करने चाहिएँ। वे इस प्रकार हैं—(१) सचित्त-निक्षेपण—दान न देने के विचार से भोजन-सामग्री को सचित्त वस्तुओं में रख देना। (2) सचित्तपिधान—सचित्त वस्तुओं से ढक देना / (3) कालातिक्रम—समय बीतने पर भिक्षादि के लिए आमन्त्रित करना। (4) परव्यपदेश—टालने के लिए अपनी वस्तु को दूसरे की बताना / (5) मत्सरिता ईर्ष्यापूर्ण दान देना। टीका प्रस्तुत सूत्र में यथासंविभाग व्रत के अतिचार बताए गए हैं, इसी का दूसरा नाम श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 136 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy