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________________ सिज्जासंथारे, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय उच्चारपासवण भूमी, अप्पमज्जियदुप्पमज्जिय उच्चारपासवण-भूमी, पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणया // 55 // __ छाया—तदनन्तरं च खलु पौषधोपवासस्य श्रमणोपासकेन पंचातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारकः, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारकः, अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितोच्चार प्रस्रवण भूमिः, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितोच्चारप्रस्रवण भूमिः, पौषधोपवासस्य सम्यगननुपालनम्। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर, समणोवासएणं श्रमणोपासक को, पोसहोववासस्स—पौषधोपवास के, पंच अइयारा—पांच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा—परन्तु आचरण न करने चाहिएँ, तं जहा—वे इस प्रकार हैं—अप्पडिलेहिय-दुष्पडिलेहिय सिज्जासंथारे—अप्रतिलेखित-दुष्पतिलेखित शय्यासंस्तारक, अप्पमज्जियदुप्पमज्जिय सिज्जासंथारेअप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित ‘शय्यासंस्तारक, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय उच्चारपासवण भूमी—अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार प्रस्रवण भूमि, अप्पमज्जिदुप्पमज्जिय उच्चारपासवाण भूमी–अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित उच्चार-प्रस्रवण भूमि, पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणया–पौषधोपवास का सम्यगननुपालन। . भावार्थ इसके अनन्तर श्रमणोपासक को पौषधोपवास के पांच अतिचार जानने चाहिएँ, परन्तु उनका आचरण न करना चाहिए, वे अतिचार इस प्रकार हैं—(१) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तार बिना देखे-भाले अथवा अच्छी तरह देखे-भाले बिना शय्या का उपयोग करना। (2) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्या-संस्तार—पूंजे बिना अथवा अच्छी तरह पूंजे बिना शय्यादि का उपयोग करना। (3) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार प्रस्रवण भूमि–बिना देखे अथवा अच्छी तरह देखे बिना शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। (4) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारप्रस्रवण भूमि बिना पूंजे अथवा अच्छी तरह पूंजे बिना शौच एवं लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। (5) पौषधोपवास का सम्यगननुपालन—पौषधोपवास को विधिपूर्वक न करना / टीका प्रस्तुत व्रत का नाम पौषधोपवास व्रत है। पौषध का अर्थ है—उपाश्रय या धर्म स्थान, और उपवास का अर्थ है अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम रूप चार प्रकार के आहार का त्याग। इस व्रत में उपवास के साथ सावध प्रवृत्तियों का भी त्याग किया जाता है और दिन रात के लिए घर से सम्बन्ध तोड़ दिया जाता है। व्रतधारी अपने सोने-बैठने तथा शौच एवं लघुशंका आदि के लिए भी स्थान निश्चित कर लेता है। इस व्रत के अतिचारों में प्रथम चार का सम्बन्ध मर्यादित भूमि तथा शय्या-आसनादि की देख-रेख से है। व्रतधारी को इन्हें अच्छी तरह देखभाल कर बरतना चाहिए, जिससे किसी जीव-जन्तु की हिंसा न होने पाए। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 135 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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